Friday, October 31, 2008

पति से रोज पिटती हैं चालीस फीसदी महिलाएँ

घरेलू हिंसा के मामले में अव्वल है बिहार
बिहार के पति खुद को घर का शेर समझते हैं, इसलिए किसी न किसी बहाने अपनी पत्नियों पर वे सबसे ज्यादा घरेलू हिंसा करते हैं। दूसरी तरफ ऐसे अत्याचारी पतियों के खिलाफ हिम्मत जुटाकर कानून का हंटर चलाने में छत्तीसगढ़ की महिलाएँ सबसे आगे हैं। तीसाल में घरेलू हिंसा कानून के तहत पति के हाथों पिटने वाली छत्तीसगढ़ की महिलाओं ने पतियों के खिलाफ सबसे ज्यादा शिकायतें दर्ज कराई हैं।
2007 में जारी तीसरे राष्ट्रीय स्वास्थ्य परिवार सर्वेक्षण के मुताबिक देश की 40 फीसदी महिलाएँ किसी न किसी बहाने रोज ही अपने पतियों से पिटती हैं। शिक्षित महिलाओं पर जहाँ 12 फीसदी घरेलू हिंसा होती है, वहीं अशिक्षितों पर 59 फीसदी। इस मामले में बिहार सबसे आगे है, पर अत्याचारी पतियों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई और मामला दर्ज कराने में छत्तीसगढ़ की महिलाएँ ज्यादा सजग हैं।
नेशनल क्राइम ब्यूरो के रिकॉर्ड के मुताबिक 2005 में पूरे देश में घरेलू हिंसा कानून के तहत 1497 मामले दर्ज किए गए। इसमें अकेले छत्तीसगढ़ से 1390 मामले हैं। 1996 आरोपियों के खिलाफ आरोप-पत्र दायर हुए और 184 के खिलाफ दोष सिद्घ हुए। 2076 लोगों को गिरफ्तार किया गया। घरेलू हिंसा के तहत मामले दर्ज कराने में छत्तीसगढ़ के बाद चंडीगढ़ की महिलाएँ सामने आई हैं। चंडीगढ़ में 2005 में 75 मामले दर्ज किए गए और 56 के खिलाफ आरोप-पत्र दायर किए गए। 148 लोगों पर इस कानून की गाज गिरी और वे गिरफ्तार हुए। वर्ष 2006 में भी छत्तीसगढ़ से ही सबसे ज्यादा मामले सामने आए। देशभर से 1736 मामले दर्ज हुए, जिसमें छत्तीसगढ़ की संख्या 1421 है। इनमें 1214 के खिलाफ आरोप-पत्र दायर हुआ तो 2028 लोगों की गिरफ्तारी हुई। गुजरात से घरेलू हिंसा के 150, पंजाब से 17 और उत्तरप्रदेश से 13 मामले सामने आए। वर्ष 2007 में घरेलू हिंसा के 2921 मामले दर्ज हुए। इसमें छत्तीसगढ़ से 1651 मामले दर्ज हुए।
इनमें 1249 आरोपियों के खिलाफ आरोप-पत्र दायर हुए और 2206 पर कार्रवाई हुई। इस साल गुजरात में भी मामलों की संख्या बढ़ गई और 883 मामले दर्ज किए गए, वहीं महाराष्ट्र से 117, राजस्थान से 25 व यूपी से 25 मामले सामने आए। क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो में मध्यप्रदेश, झारखंड, बिहार, उड़ीसा, मेघालय और मिजोरम के रिकॉर्ड दर्ज नहीं है। घरेलू हिंसा कानून 26 अक्टूबर 2006 को प्रभाव में आया था, पर इस कानून को अमलीजामा पहनाने के लिए उड़ीसा, राजस्थान, पंजाब, झारखंड व कर्नाटक ने संरक्षण अधिकारियों की नियुक्ति नहीं की है।

Tuesday, October 28, 2008

रियलिटी शो का सच



टीवी पर आ रहे रियलिटी और टैलेंट शो जहाँ कुछ की किस्मत चमका देते हैं तो कुछ को अस्पताल भी पहुँचा सकते हैं। जैसा हाल ही में कोलकाता की 16 साल की शिंजिनी सेनगुप्ता के साथ हुआ। शिंजिनी एक शो में नृत्य प्रतिस्पर्धा में भाग ले रही थी और एक राउंड में उनके खराब नाच पर शो के जजों की फटकार पर वे न केवल रोईं बल्कि उनको इतना सदमा लगा कि उन्हें लकवा मार गया। उनका बेंगलुरु के एक अस्पताल में इलाज हो रहा है और डॉक्टरों का कहना है की शायद उन्हें पहले से ही कुछ बीमारी थी, जिस पर सार्वजनिक फटकार ने उनकी ये हालत कर दी। शिंजिनी की हालत पर बहस इस बात पर छिड़ गई कि इसके लिए कौन जिम्मेदार है।
बहस : इस तरह के शो पर भी सवाल उठने लगे और नियम कानून बनाने की चर्चा होने लगी। जाने-माने टीवी प्रोड्यूसर सिद्धार्थ बसु कहते हैं कि मैं समझता हूँ कि शिंजिनी के साथ जो घटना हुई है वो खतरे की घंटी है। चाहे बड़ा हो या छोटा, बेवजह किसी को भी अपमानित नहीं किया जाना चाहिए। बच्चों के लिए तो मापदंड अलग से तय होने ही चाहिए।
इस सारे घटनाक्रम में जजों की भूमिका पर सवाल उठे। क्या वे जरूरत से ज्यदा कह जाते हैं। 'सा रे गा मा' और 'जो जीता वही सिकंदर' में भाग ले चुकी हिमानी कहती हैं कि मेरा सा रे गा मा का अनुभव बहुत सकारात्मक रहा। मुझे बहुत ज्यादा निगेटिव कमेंट्स नहीं मिले। खुद के भीतर वो क्षमता होनी चाहिए कि मंच पर हमारे साथ कुछ भी हो सकता है। हिमानी कहती हैं कि जज ही हैं जो हमें जीरो से हीरो बना देते हैं या फिर हमें इतना सुना दें कि हमारा मनोबल ही टूट जाए। जजों को भी थोड़ा खयाल रखना चाहिए कि ऐसा न बोलें जिससे प्रतियोगी को जबरदस्त धक्का लगे।
डगर नहीं आसान : काजी तौकीर टीवी में टैलेंट शो के शुरुआती दौर के एक प्रतियोगी हैं। उनके लिए फेम गुरुकुल में जीत फायदे का सौदा रहा। वे भी कहते हैं कि प्रतियोगिता में जीत तो सबको दिखती है पर इसकी डगर आसान नहीं होती।


तौकीर कहते हैं कि मैंने चुनौती स्वीकार की, आलोचनाएँ झेलीं और प्रतियोगिता जीती। कुछ लोग आलोचना नहीं झेल पाते, लेकिन प्रतियोगियों को ये समझना चाहिए कि ये रियलिटी शो का हिस्सा हैं और आलोचना तो उन्हें झेलनी ही पड़ेगी। शिंजिनी के माँ-बाप सारा दोष जजों पर मढ़ रहे हैं पर ऐसे शो में जज बनने वालों का तर्क है कि अगर आप सही गलत नही बताएँगे तो प्रतियोगी कैसे अपने को सुधारेंगे, बेहतर बना पाएँगे ताकि जीत की इस दौड़ में आगे हों। 'जो जीता वही सिकंदर' में जज और विशाल-शेखर नामक मशहूर संगीत निर्देशक जोड़ी के शेखर कहते हैं कि गायक को उसकी कमियाँ बताना बहुत जरूरी है। लेकिन टीआरपी बढ़ाने के चक्कर में कुछ जज बहुत ज्यादा बोल जाते हैं, ये सही नहीं है। गायकों को बहुत प्यार से समझाना चाहिए। कुछ शो तो उकसाने-भड़काने वाले बनाए ही जाते हैं... यानी लोकप्रियता या टीवी की भाषा में टीआरपी के फेर में तड़का जरूरी है। मीडिया आलोचक शैलेजा वाजपेयी कहती हैं कि ये सारे रियलिटी शो विदेशी शो की नकल हैं। मसलन हैल्थ किचन नामक शो में तो जज गाली तक देते हैं। अगर शो में ड्रामेबाजी नहीं होगी तो इन्हें कौन देखेगा। पर टीआरपी के चक्कर में कभी-कभी हदें भी पार हो जाती हैं और शिंजिनी जैसी घटनाएँ भी घट जाती हैं।
डाँट-फटकार : डाँट-फटकार का कई बार गहरा असर हो जाता है, खासकर बच्चों पर। अपोलो अस्पताल में वरिष्ठ मनोचिकित्सक डॉ. संदीप वोहरा कहते हैं कि शिंजिनी का मामला बहुत गंभीर है। बच्चे बहुत संवेदनशील होते हैं। जजों को बहुत सोच-समझकर और सावधानी से टिप्पणियाँ करनी चाहिए।


तो सवाल ये उठता है कि क्या टीआरपी की होड़ में कहीं प्रोड्यूसर शो के जजों पर ज्यादा ड्रामा करने का दबाव तो नहीं डालते। क्या सब कुछ पहले से तय होता है। सिद्धार्थ बसु ऐसा नही मानते। वे कहते हैं कि मैं नहीं मानता कि किसी भी शो में प्रतियोगी को तैयारी कराई जा सकती है। प्रदर्शन अच्छा रहेगा तो शो अच्छा रहेगा। ड्रामेबाज़ी से कुछ नहीं होता। लड़ाई-झगड़े या बनावटी सनसनी से टीआरपी नहीं बढ़ती। कुछ जिम्मेदारी परिवारों की भी है। उन्हें भी सोचना चाहिए कि उनके बच्चे उनकी अभिलाषा पूरी करने का जरिया नहीं हैं और न ही कमाई का साधन। इसी ओर इशारा किया महिला और बाल कल्याण मंत्री रेणुका चौधरी ने। वे कहती हैं कि माँ-बाप से भी पूछा जाना चाहिए कि ये जानते-बूझते भी कि उनके बच्चे इतने नाजुक हैं, वे बच्चों पर दबाव क्यों डालते हैं। फेम गुरुकुल विजेता काजी आज फिल्मों में काम कर रहे हैं। कुछ विजेताओं को फ़िल्मों में गाने का मौका मिला, कुछ का करियर चल निकला।

शो का लोभ : इसलिए इन शो का लोभ भी बढ़ा है और तादाद भी। पर इसका एक नकारात्मक प्रभाव ये पड़ा कि अब इतने विजेता हो गए हैं कि दर्शक भी कम हो गए हैं और जीत के फायदे भी।
हिमानी कहती हैं कि फायदा तब था जब एक-दो शो चल रहे थे। अब तो इतने शो चल रहे हैं कि जो थोड़ा बहुत भी गाता है ऑडिशन देने चला आता है। पर रियलिटी शो ने गाँवों और छोटे शहरों के कई गुमनाम लोग रातोरात राष्ट्रीय स्टार बना दिया। इसे करोड़ों लोगों ने देखा कि कई परिवारों को लगने लगा कि उनका चिंटू, उनकी गुडिया भी किसी से कम नहीं है। शैलेजा वाजपेयी कहती हैं कि एक तरह से ये अच्छा है। छोटे शहरों के बच्चों को मौका मिल रहा है, लेकिन पहले इंडियन आइडल अभिजीत सावंत को ही लीजिए। एक-दो एलबम के बाद वो कहाँ हैं। पता नहीं। तो क्या शो के लिए नियम कानून बनाए जाने चाहिए या फिर इन्हें बंद कर दिया जाना चाहिए, खासकर जिनमें बच्चे भाग लेते हैं।

जिम्मेदारी : डॉ. संदीप वोहरा कहते हैं कि शो हों पर जिम्मेदारी भरे हों। शो के नियम कानून होने चाहिए। ऐसा न हो कि अभिभावक अपनी महत्वाकांक्षा के लिए बच्चों पर शो में शामिल होने का दबाव बनाएँ। इन शो में अक्सर बच्चों को उम्र से पहले बड़ा दिखाने की कोशिश की जाती है। उन्हें बड़ों जैसे कपड़े पहनाए जाते हैं, मेकअप किया जाता है।
संगीत निर्देशक शेखर कहते हैं कि बच्चों को बच्चा रहना दें। रियलिटी शो बच्चों के लिए ठीक नहीं हैं। प्रतियोगिता के बजाय ट्रेनिंग शो होना चाहिए। माँ-बाप को बच्चों की प्रतिभा निखारनी चाहिए। वहीं सिद्धार्थ बसु भी बच्चों पर बहुत दबाव डालने के खिलाफ हैं। वे कहते है नियम टीवी उद्योग को खुद बनाने चाहिए और अभिभावकों को भी जिम्मेदारी से काम लेना चाहिए। वो कहते हैं कि माँ-बाप का बच्चों को प्रोत्साहित करना सही है, लेकिन एक सीमा तक ही ये ठीक है। यानी मुनाफे के लिए और मनोरंजन का साधन बने इन शो के निर्माताओं को जहाँ ज़्यादा जिम्मेदारी दिखाने कि जरूरत है, वहीं जजों को समझना चाहिए कि उन पर शो टिके हैं और शो के दौरान बच्चे उनके हर शब्द को पत्थर की लकीर मानते हैं। ऐसे में वे कहीं बच्चों को आहत तो नहीं कर रहे हैं। माँ-बाप को भी सोचना जरूरी है कि प्रतिस्पर्धा, लोकप्रियता और कमाई के लालच में कहीं वे अपनी बच्चों पर जरूरत से ज्यादा दबाव तो नही डाल रहे। कहीं आगे बढ़ने की इस अंधी दौड़ में वो अपनी बच्चों की जान शिंजिनी कि तरह खतरे में तो नहीं डाल रहे हैं।




उपहारों पर भी पड़ी मंदी की मार



दुनियाभर में छाई आर्थिक मंदी से अब उपहार भी नहीं बच पाए हैं। मंदी के कारण व्यापारिक प्रतिष्ठानों ने दीवाली पर दिए जाने वाले उपहार का बजट कम से कम 25 फीसदी घटा दिया हैपने सदस्यों से बातचीत के बाद वाणिज्य और उद्योग संगठन एसोचैम इस आकलन पर पहुँचा है कि आर्थिक मंदी को देखते हुए औद्योगिक और व्यावसायिक संगठनों ने अपने उपहारों के बजट में पच्चीस फीसदी की कटौती की है। एसोचैम ने यह आकलन अपने सदस्यों से मिले 'फीडबैक' और व्यापारिक प्रतिष्ठानों के 2007 के उपहारों के बजट के आधार पर किया है।

बजट घटाया : पिछले साल दीवाली पर इन व्यापारिक प्रतिष्ठानों ने करीब 2000 करोड़ रुपए के उपहार बाँटे थे। संगठन का अनुमान है कि इस साल यह बजट पाँच सौ करोड़ रुपए घटकर केवल 1500 करोड़ रुपए ही रह गया है।
एसोचैम के महासचिव डीएस रावत ने बताया व्यापारिक प्रतिष्ठानों ने इस साल दीवाली पर उपहार देने के लिए जिन वस्तुओं का चयन किया है, उनमें से अधिकतर चीन से आयात की गई हैं, क्योंकि वे काफी सस्ती हैं और उनकी पैकेजिंग भी बढ़िया मानी जाती है।
पिछले साल दीवाली पर इन प्रतिष्ठानों ने सोने-चाँदी के सिक्के, कलाई घड़ी, ब्रीफकेस, पीतल और चाँदी के बर्तन, मोमबत्ती स्टैंड और इलेक्ट्रॉनिक उपकरण आदि उपहार में बाँटे थे। डीएस रावत ने कहा व्यापारिक प्रतिष्ठानों ने इस साल इन वस्तुओं को खरीदेने से परहेज किया है, क्योंकि इनके दाम काफी अधिक हैं। इस साल उपहार देने के लिए व्यापारिक घरानों ने प्लास्टिक के सामान, खिलौने और अन्य आकर्षक वस्तुओं की खरीद की है। महँगाई की मार के बीच थोक बाजार में सूखे मेवे की बिक्री में पिछले कुछ दिनों में 40 फीसदी का इजाफा हुआ है, क्योंकि सूखे मेवे को त्योहारों का अच्छा उपहार माना जाता है। डीएस रावत का मानना है कि कच्चे माल की बढ़ती लागत, गिरती अर्थव्यवस्था और महँगे होते कर्ज ने व्यापारिक घरानों को उपहारों का बजट कम करने के लिए मजबूर किया है। उन्होंने कहा कि अगर यह गिरावट अगले एक-दो महीने और जारी रही तो ये व्यापारिक घराने अपने संसाधनों को रिश्ते मजबूत करने पर खर्च करने से परहेज करेंगे। उपहारों को बजट सबसे अधिक आईटी, बीपीओ, विमानन उद्योग, एफएमसीजी, पर्यटन, रिटेल, इंजीनियरिंग, ऑटोमोबाइल और रीयल इस्टेट के घरानों ने कम किया है। ये घराने केवल चुने हुए लोगों को ही उपहार दे रहे हैं, क्योंकि आर्थिक मंदी की मार सबसे अधिक इन्हीं क्षेत्रों पर पड़ी है, जिससे इनकी आमदनी घटी है।

Saturday, October 25, 2008

मालेगांव धमाके में एक और साध्वी गिरफ्तार

मालेगांव विस्फोट की साजिश का पर्दाफाश करने में जुटी पुलिस का कहना है कि इंडियन मुजाहिदीन के मुकाबले के लिए दो दक्षिणपंथी संगठन बनाए गए हैं। पुलिस इन संगठनों की जांच करेगी।विस्फोट की साजिश का पर्दाफाश करने के क्रम में कई और गिरफ्तारियों की खबर है। गिरफ्तार किए गए लोगों में एक और साध्वी व सेना के कुछ सेवानिवृत्त अधिकारी भी शामिल हैं। साध्वी को भोपाल से गिरफ्तार किया गया है, जबकि सेना के कुछ पूर्व अधिकारियों से मुंबई में पूछताछ की जा रही है। महाराष्ट्र के नासिक से भी कुछ गिरफ्तारियां होने के संकेत हैं। उधर, दक्षिणपंथी संगठन श्री राम सेना खुल कर साध्वी प्रज्ञा व उनके साथियों के समर्थन में उतर गई है।मालेगांव धमाके के सिलसिले में सूरत से एक साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर को गिरफ्तार किए जाने के बाद मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल से एक और साध्वी की गिरफ्तारी की खबर है। हालांकि पुलिस इस बारे में मुंह नहीं खोल रही है। मुंबई में पूर्व सैन्य अधिकारियों से पूछताछ के बारे में भी आधिकारिक रूप से कोई कुछ नहीं बता रहा। एटीएस ने शनिवार को बस इतना बताया कि जिन तीन लोगों को शुक्रवार को अदालत ने पुलिस रिमांड पर भेजा, उन्होंने दो दक्षिणपंथी संगठन बना रखे थे। ये संगठन इंदौर और सूरत में स्थित थे। ये संगठन इंडियन मुजाहिदीन की ओर से किए जाने वाले हमलों का जवाब देने के लिए बनाए गए थे। एटीएस के अधिकारियों ने बताया कि महाराष्ट्र पुलिस इन दोनों संगठनों की जांच करेगी।साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर, शिवनारायण और श्याम साहू को सूरत और इंदौर से गिरफ्तार किया गया था। इन सभी को शुक्रवार को अदालत में पेश किया गया था। अदालत ने इन्हें तीन नवंबर तक पुलिस हिरासत में भेज दिया था। इनकी मदद के लिए शनिवार को एक दक्षिणपंथी संगठन आगे आया। श्री राम सेना ने इन्हें कानूनी मदद की पेशकश की है। यह वही संगठन है, जो हाल में नई दिल्ली में एम.एफ. हुसैन की पेंटिंग प्रदर्शनी में तोड़फोड़ करने के बाद चर्चा में रहा था।सेना के महासचिव विनय सिंह ने दिल्ली में कहा कि ये गिरफ्तारियां राजनीति से प्रेरित हैं। इसलिए उनका संगठन आरोपियों को कानूनी मदद मुहैया कराएगा। सेना औपचारिक तौर पर खुद को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से संबद्ध नहीं मानती, लेकिन तीन साल पहले इसकी स्थापना संघ के एक पूर्व अधिकारी प्रमोद मुत्तालिक ने की थी। संगठन की राजनीतिक ईकाई राष्ट्रीय हिंदुस्तान सेना भाजपा विरोध की नीति पर चलती है।उधर, मुंबई में एटीएस के संयुक्त पुलिस आयुक्त हेमंत करकरे ने बताया कि वैसे तो कोई खास संगठन नहीं है, जिससे ये तीनों संबद्ध हों, लेकिन जय वंदे मातरम, जय कल्याण समिति नामक संगठन के पंपलेट हमें मिले हैं। ये संगठन 2992 में प्रज्ञा सिंह ने स्थापित किए हैं। मोबाइल फोन स्टोर चलाने वाले साहू ने इंदौर में राष्ट्रीय जागरण मंच नाम से संगठन बना रखा है। करकरे ने फिलहाल इन लोगों के किसी दक्षिणपंथी संगठन से संबद्ध होने की पुष्टि करने से इनकार किया, लेकिन यह जरूर कहा कि इनके पास से दक्षिणपंथी साहित्य मिला है। इनके फोन रिकार्ड की भी जांच हो रही है। उन्होंने यह भी कहा कि 29 सितंबर को मालेगांव में हुए धमाकों की साजिश से ये तीनों अंजान नहीं हो सकते।उधर, एटीएस का एक तीन सदस्यीय दल शनिवार को भोपाल पहुंचा। पुलिस सूत्रों ने औपचारिक तौर पर कुछ बताने से इनकार किया, लेकिन सूत्रों के मुताबिक भोपाल से कुछ और गिरफ्तारियां हुई हैं।इस बीच, भाजपा ने इन तीनों की गिरफ्तारी पर पुलिस से स्पष्टीकरण की मांग की है। पार्टी प्रवक्ता प्रकाश जावड़ेकर ने नागपुर में पत्रकारों से अनौपचारिक बातचीत में कहा कि पुलिस को कथित तौर पर हिंदू जागरण मंच से संबंध रखने वाले व्यक्तियों की गिरफ्तारी के बारे में मीडिया को स्पष्ट तौर पर सब कुछ बताना चाहिए। उन्होंने कहा कि ये गिरफ्तारियां राजनीतिक संतुलन साधने की साजिश का हिस्सा हैं।

पुलिस के सामने हुआ दुष्कर्म: नन

उड़ीसा के कंधमाल में हिंसा के दौरान दुष्कर्म की शिकार नन ने शुक्रवार को कहा कि उसके साथ पुलिस के सामने दुष्कर्म हुआ और पुलिस मूकदर्शक बनी रही। मीडिया से पहली बार रूबरू होते हुए नन ने कहा कि उसे राज्य की पुलिस पर भरोसा नहीं है और इस मामले की जांच सीबीआई से कराई जानी चाहिए।पीड़िता सिस्टर मीना [काल्पनिक नाम] ने अपने साथ हुई घटना की विस्तृत जानकारी देते हुए संवाददाता सम्मेलन में कहा कि गत 25 अगस्त को उसके साथ जो कुछ भी हुआ वह सब स्थानीय पुलिस के सामने हुआ और पुलिस ने हमलावरों से उसे बचाने के लिए कुछ नहीं किया। उसने कहा कि मेरे साथ दुष्कर्म हुआ है और मैं फिर से उड़ीसा पुलिस की यातना झेलना नहीं चाहती।पीड़िता नन अपनी व्यथा लिखकर लाई थी जिसे उसने पढ़कर सुनाया। उसने आरोप लगाया कि पुलिस ने आरोपियों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज करने में ढिलाई बरती और उसका बयान दर्ज नहीं किया गया। नन ने कहा कि मेरे साथ दुष्कर्म हुआ है और मैं फिर से उड़ीसा पुलिस की यातना झेलना नहीं चाहती।गौरतलब है कि उड़ीसा के कंधमाल जिले स्थित जलेशपाटा आश्रम में गत 23 अगस्त को अज्ञात हमलावरों ने विश्व हिंदू परिषद [विहिप] के नेता स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती और उनके चार समर्थकों की हत्या क र दी थी। इस घटना के बाद जिले में फैली सांप्रदायिक हिंसा में उपद्रवियों ने कई गिरजाघरों को निशाना बनाया और ईसाइयों के घर फूंक डाले।इस हिंसा के दौरान दुष्कर्म की शिकार नन ने सुप्रीम कोर्ट से न्याय की गुहार की। हालांकि अदालत ने गत 22 अक्टूबर को इस मामले की सुनवाई के दौरान कहा कि फिलहाल इस मामले को सीबीआई को सौंपने की जरूरत महसूस नहीं हो रही है।प्रेस कांफ्रेंस के दौरान किसी को भी पीड़िता नन से सवाल जवाब की अनुमति नहीं थी, लेकिन वहां मौजूद आल इंडिया क्रिश्चियन काउंसिल के महासचिव और राष्ट्रीय एकता परिषद के सदस्य आर्क बिशप जॉन दयाल ने कहा कि हम न्याय के लिए लड़ाई जारी रखेंगे और इस मामले की सीबीआई जांच के लिए पुनर्विचार याचिका दायर करेंगे।

उन्होंने आरोप लगाया कि राज्य में पिछले दिनों की हिंसा में समुदाय विशेष के निर्दोष व्यक्तिओं को निशाना बनाया गया और अब राज्य सरकार अभियुक्तों को सजा देने में ढील बरत कर रही है। आर्क बिशप ने कहा कि हम चाहते हैं कि राज्य में वर्ष 2007 में हुई हिंसा के अलावा विहिप नेता की हत्या तथा उसके बाद फैली सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं की जांच सीबीआई से कराई जाए।जान दयाल ने कहा कि हम उन लोगों के खिलाफ भी आपराधिक शिकायत दर्ज करने जा रहे हैं जिन्होंने हमारे खिलाफ साजिश करने का आरोप लगाया। हालांकि उन्होंने आरोप लगाया कि कंधमाल जिले में हुई हिंसा में दिवंगत सरस्वती और उनके समर्थकों का ही हाथ है।जान दयाल ने कहा कि उडीसा पुलिस से उनका विश्वास उठ गया है और ईसाई समुदाय के हजारों लोग आज भी शरणार्थी शिविरों में हैं तथा अपने घर लौटने को लेकर सहमे हुए हैं।इस दौरान दिल्ली कैथोलिक चर्च के प्रवक्ता फादर डोमिनिक इमैनुअल ने यह प्रेस कांफ्रेंस देश की राजधानी में कराए जाने की वजह पूछे जाने पर कहा कि मीडिया का जमावड़ा होने की वजह से हमारी बात ज्यादा लोगों के बीच जाएगी और अदालत अपने फैसले पर पुनर्विचार करने की सोचेगी।उन्होंने नोएडा के बहुचर्चित आरुषि हेमराज हत्याकांड का हवाला देते हुए कहा कि मीडिया के कवरेज की वजह से ही इस मामले की सीबीआई जांच की गई और हमें उम्मीद है कि इस ईसाइयों के साथ अत्याचार की घटना की भी सीबीआई जांच होगी।

Thursday, October 23, 2008

लंबे चुंबन से भी फैलता है एड्स!

इंदौर के एक डॉक्टर ने कंडोम को एड्स से बचाव के लिए कथित तौर पर ब्रह्मास्त्र की तरह बताने वाले सरकारी प्रचार अभियानों का कड़ा विरोध करते हुए फौरन इन पर रोक लगाने की माँग की है। डॉक्टर का आरोप है कि एचआईवी संक्रमण की दूसरी वजहों पर जागरुकता फैलाने की ओर भारत सरकार का ध्यान अपेक्षाकृत कम है, जिनमें कुछ अनुसंधानों के मुताबिक इसकी वजहों में लंबा चुंबन भी शामिल है। इंदौर के डॉ. मनोहर भंडारी ने बताया वे अपने वकील के जरिये इस सिलसिले में केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के सचिव और राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संगठन नाको को कानूनी नोटिस भी भेज चुके हैं। 26 सितंबर को भेजे गए नोटिस में जोर देकर दावा किया गया है कि लंबे चुंबन से भी एड्स फैल सकता है। शहर के एक चिकित्सा महाविद्यालय में नौकरी करने वाले डॉ. भंडारी ने आरोप लगाया कि सरकार और उससे जुड़ी विभिन्न एजेंसियाँ उक्त वैज्ञानिक तथ्य को छिपाने की कोशिश कर रही हैं, जो बेहद दुर्भाग्यजनक है। नोटिस में कहा गया है कि स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं डॉक्टरों और नर्सों के लिए सरकारी एजेंसियों की ओर से एड्स पर प्रकाशित प्रशिक्षण माड्यूल में चुंबन और एड्स के संबंधों पर अलग-अलग बातें सामने आती हैं।
भंडारी ने कहा स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के लिए प्रकाशित प्रशिक्षण माड्यूल में उल्लेख किया गया है कि चुंबन या आलिंगन से एड्स नहीं फैलता। उन्होंने नर्सों के लिए जारी प्रशिक्षण माड्यूल में चुंबन के संदर्भ को बेहद उलझा हुआ बताया। उन्होंने उक्त माड्यूल के हवाले से कहा कि साधारण चूमने से भी एड्स संक्रमण नहीं होता। ज्यादातर वैज्ञानिकों का मानना है कि अधिक समय तक लिए गए चुंबन से एचआईवी संक्रमण संभव है, क्योंकि इसमें रक्त ज्यादा देर तक परस्पर संपर्क में रहता है। साधारणतः इसकी आशंका कम ही रहती है। नोटिस के मुताबिक डॉक्टरों के लिए प्रकाशित प्रशिक्षण माड्यूल में सूखे चुंबन जैसे आकस्मिक संपर्क को एड्स के मामले में सुरक्षित बताया गया है। डॉ. भंडारी की मानें तो इस विषय पर किए गए कुछ अनुसंधान कहते हैं कि मसूड़े क्षतिग्रस्त हों अथवा मुँह में कोई घाव या छाला हो तो एड्स संक्रमित शख्स को लंबे समय तक चूमने से यह बीमारी साथी में भी घर कर सकती है। नोटिस में आरोप लगाया गया है कि एड्स से बचाव के लिए सरकार द्वारा केवल कंडोम का प्रचार आम जनता को गुमराह कर रहा है। डॉ. भंडारी के वकील सुरेश नारायण सक्सेना ने नोटिस में सरकार को चेतावनी भरे लफ्जों में कहा है कि वह एचआईवी संक्रमण की दूसरी वजहों पर भी आम जन के लिए जोरदार जागरुकता अभियान चलाए। इस बीच एड्स के साथ जी रहे लोगों के लिए काम करने वाले एक गैर सरकारी संगठन ने कहा कि यह दावा सरासर गलत है कि कंडोम को सरकार हौवा बनाकर पेश कर रही है।
मध्यप्रदेश नेटवर्क ऑफ पीपुल लिविंग विद एचआईवी पॉजीटिव के मनोज वर्मा ने कहा देश में एड्स संक्रमण के ज्यादातर मामले असुरक्षित यौन संबंधों के चलते सामने आते हैं। उन्होंने जोर देकर कहा कंडोम न केवल एड्स के खतरे से बचाता है, बल्कि कई गुप्त रोगों और अवांछित गर्भ से भी रक्षा करता है। लिहाजा कंडोम का जोरदार प्रचार-प्रसार किया जा रहा है तो इसमें आखिर क्या बुराई है।

युवाओं में बढ़ रही है जीवन बदलने की चाह

समाज में बढ़ती गलाकाट प्रतिस्पर्धा और घटते मूल्यों के बीच लोगों में अपने जीवन को बदलने की चाह बढ़ रही है तथा विशेषज्ञों के अनुसार इस दिशा में देश की युवा पीढ़ी अधिक गंभीर नजर आ रही है।
विशेषज्ञों के अनुसार आज की युवा पीढ़ी का जीवन के प्रति कहीं अधिक व्यावहारिक नजरिया है और इसलिए वे अपनी पेशेवर जिंदगी के साथ-साथ निजी जिंदगी की समस्याओं को सुलझाने के लिए डॉक्टर काउंसलर सहित अन्य विशेषज्ञों के पास जाने में हर्गिज संकोच नहीं करते।
शायद इसके पीछे उनमें जीवन को चुस्त-दुरुस्त रखने की मंशा भी मुख्य प्रेरणा हो सकती है। पश्चिम में आज के दिन मनाए जाने वाले चेंज योर लाइफ डे की प्रासंगिकता भारत में भी दिनोदिन बढ़ रही है।भारत के नगरीय जीवन में शिक्षा ही नहीं करियर, बचत, निवेश, जमीन-जायदाद और विवाह पूर्व काउंसिंलिंग जैसी सेवाओं की माँग बढ़ रही है।
फ्रांसीसी कंपनी विज्ञान की भारतीय शाखा के मुख्य कार्य अधिकारी एवं मोटिवेटर पवन चौधरी ने कहा कि आज लोग अपने जीवन की समस्याओं को लेकर काउंसलरों और अन्य विशेषज्ञों के पास जा रहे हैं, जिससे पता चलता है कि हमारा समाज तरक्की कर रहा है। लोगों विशेषकर युवाओं में बदलाव की चाहत बढ़ रही है।

Wednesday, October 22, 2008

साँपों को भी नहीं छोड़ते शिकारी

मैंने हाल ही में समाचार-पत्रों में पढ़ा था कि केंद्र सरकार ने ँपेरों पर प्रतिबंध लगा दिया है। यदि यह सत्य है तो यह पिछले तीन वर्षों में इस सरकार से मिलने वाली पहली अच्छी खबर है। फिर भी मैं आश्चर्यचकित हूँ कि सरकार पहिए का फिर से आविष्कार कर रही है।
साँप को पकड़ना, उसका उपयोग तथा बिक्री को 1972 में वन्यजीव संरक्षण अधिनियम द्वारा प्रतिबंधित किया गया था। पुलिस घूमने वाले प्रत्येक ँपेरों को इसलिए नहीं पकड़ती, क्योंकि अधिकांश निचले स्तर पर पुलिस वालों को अभी तक इस कानून के बारे में नहीं पता है।
संभवतः कुछ गाँव अभी भी ँपेरों से भरे पड़े हैं। जैसे कि आगरा में सकलपुर, हरियाणा में मेवास, जैसे कई गाँव जिनमें छापा मारकर वहाँ के सारे निवासियों को गिरफ्तार करके 7 वर्ष के लिए जेल में भेज देना चाहिए।
भारत में हम अभी भी वन्यजीव की रक्षा को गंभीरतापूर्वक नहीं लेते हैं। जरा कल्पना कीजिए कि ठगी अथवा राजमार्ग पर डकैती तथा हत्या पर प्रतिबंध लगाने का विरोध करने के लिए ठगों (वही जो आगरा के आसपास उन्हीं गाँवों में रहते हैं) द्वारा एक बैठक बुलाई गई होती। तब क्या हुआ होता? पुलिस अपराधियों के इकट्ठा होने की प्रतीक्षा करती और फिर उन पर टूट पड़ती। इस बैठक में भी ऐसा ही होना चाहिए था, किंतु खेद है कि ऐसा नहीं हुआ। अब इसके बाद तो तिब्बत में शेर तथा चीते की खाल ले जाने वाले अवैध शिकारियों से यह आशा की जाती है कि वे अपनी यूनियन की एक ऐसी ही बैठक आयोजित करें और इसका विरोध करें कि यदि अवैध शिकार को रोक दिया गया तो तिब्बती नंगे रह जाएँगे।इन अवैध शिकारियों द्वारा आयोजित की गई बैठक में इस पर बल दिया गया कि वे लोग संकटापन्न प्रजातियों को कभी हाथ नहीं लगाएँगे और पकड़े गए साँपों को वार्षिक प्रजनन काल के प्रारंभ में वापस जंगलों में छोड़ देंगे।
नियमित रूप से पशु हत्या के अपराधियों का पता लगाने तथा उन्हें गिरफ्तार करने वाले हजारों व्यक्तियों के एक नेटवर्क की अध्यक्ष के रूप में मैं जानती हूँ कि ये दोनों बातें ही पूर्णतः असत्य हैं। हमने दिल्ली में ही सैकड़ों किंग कोबरा तथा अन्य गंभीर रूप से संकटापन्न प्रजातियों को पकड़ा है। हमने पिछली बार 27 कोबरा की एक खेप को पकड़ा था, जिन्हें राजस्थान के मदारियों के एक परिवार द्वारा शहर में साँप के खेल दिखाने वालों को बेचने के लिए लाया जा रहा था। वे सभी एक ही थैले में थे और उनमें से सभी बुरी तरह से चोटिल थे। उनमें से आधे कुछ ही दिनों में मर गए थे। उनके खिलाफ मामला दर्ज किया जा चुका है, परंतु वह परिवार संभवतः गायब हो गया है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि वे शहर के किसी अन्य भाग में और साँपों को बेचेंगे। साँप के संकटापन्न होने का कारण ऐसे साँप के उपयोग करने वाले हैं। कल्पना कीजिए कि यदि उनकी संख्या केवल 5 हजार ही हो। पिछले कई वर्षों से प्रत्येक 6 सप्ताह में 5 हजार कोबरा (सामान्यतः इसके फन के कारण ँपेरे इसके पीछे पड़ते हैं) की हत्या की जाती है। इसमें कोई संदेह नहीं कि उनकी हत्या की जाती है। किसी भी साँप को प्रजनन के लिए वापस जंगल में नहीं छोड़ा गया है। अधिकांश मदारी स्वयं साँप को नहीं पकड़ते हैं और उन्हें पता भी नहीं होता कि ऐसा कैसे किया जाता है। वे अपने स्टॉक के लिए अवैध शिकारियों की एक श्रृंखला पर निर्भर करते हैं। इसलिए उन्हें पता भी नहीं होता कि उनका साँप कहाँ से आया होगा। दूसरा, चूँकि किंग कोबरा के दाँतों में विष होता है, इसलिए अवैध शिकारी सबसे पहले एक हथौड़े से उसके दाँतों को तोड़ देते हैं।
कोबरा के विष वाले दाँत उसके कैनाइन दाँत होते हैं। कल्पना कीजिए कि आपके कैनाइन को हथौड़ी मारकर तोड़ा जाए। इस प्रक्रिया में कई साँपों के जबड़े टूट जाते हैं। इसमें दर्द काफी अधिक होता है और तोड़े जाने से होने वाला संक्रमण पूरे जबड़े में फैल जाता है, ठीक वैसे ही जैसा कि यह मानव में होता है। एक बार ये दाँत निकाल दिए जाने के पश्चात साँप खा नहीं सकते। इन दाँतों का मुख्य उद्देश्य लोगों को काटना नहीं है। ये भोजन को पचाने के लिए होते हैं। विष एक एन्जाइम है जो भोजन को सोखता है ताकि साँप का शरीर उसे पचा सके। ये दाँत न होने पर भोजन को पचाया नहीं जा सकता। यदि साँप को भोजन करना भी हो तो वह ऐसा नहीं कर सकता, क्योंकि उसका जबड़ा संक्रमित तथा टूटा हुआ है और भोजन उसके शरीर में बिना टूटे हुए चला जाएगा तथा कवच और अन्य रोग उत्पन्न करेगा। अवैध शिकारियों द्वारा दावा किए अनुसार उसके प्रजनन काल के दौरान उसे जंगल में ही वापस छोड़ दिए जाने पर भी उसकी मृत्यु हो जाएगी, क्योंकि वह भोजन नहीं कर सकता, वह प्रजनन नहीं कर सकता और जिस जंगल में उसे छोड़ा गया है वह उससे अपरिचित होता है। साँप कुछ दिन तक बिना भोजन किए रह सकता है। वह पतला तथा कमजोर होता जाता है। इसके साथ ही उसे गोल-गोल घुमाकर लपेटने की अमानवीय क्रूरता और एक ऐसी सिल्लियों से बनी सीधी टोकरी में रखना जिसकी खुली तीलियाँ उसे हमेशा चुभती रहें।
साँप एक लंबा रेंगने वाला प्राणी है। इसे निश्चित रूप से दिन में 20 घंटे के लिए जबरदस्ती मोड़कर रखे जाने की आदत नहीं होती।
अपने को उसकी स्थिति में रखकर देखिए और कल्पना कीजिए कि यदि आपके साथ ऐसा होता तो। इसकी त्वचा नरम तथा संवेदनशील होती है। इसमें आसानी से छेद हो जाते हैं। वस्तुत: आपके नाखून बढ़े हुए हों और आप किसी साँप को पकड़ लें तो आप आसानी से उसे इस प्रकार जख्मी कर सकते हैं कि उसकी मृत्यु हो जाए। न केवल ँपेरों के नाखून लंबे तथा गंदे और उनके हाथ सख्त होते हैं, बल्कि जिस टोकरी में उन्हें रखा जाता है वह भी साँप की त्वचा के लिए बहुत खतरनाक होती है। कोई भी साँप एक माह से अधिक जीवित नहीं रहता। फिर भूखा, सही प्रकार से नहीं रखे जाने, टूटे हुए जबड़े, जबड़े के संक्रमण, जबरदस्ती लपेटे जाने से पसलियों के टूटने से उसकी मृत्यु हो जाती है। वह फिर कभी जंगल में अपना घर नहीं देख पाएगा। चूँकि उसे पाँच सौ रुपए में खरीदा गया था और मदारी ने इससे कई हजार रुपए कमा लिए हैं, इसलिए उसके पास दूसरा साँप खरीदने के लिए पर्याप्त पैसे हैं। अवैध शिकारियों ने माँग की है कि सरकार एक 'साँप पार्क' की स्थापना करे जिसमें उन सभी को रोजगार मिल सके। यह काम छोड़ चुके जेबकतरों के लिए एक प्रदर्शनी पार्क स्थापित करने के समान होगा ताकि वे जनता को अपने कौशल दिखा सकें। उस पार्क में केवल यही होगा कि इन लोगों को जाकर और अधिक साँप लाने की अनुमति होगी, उसके साथ वे वैसा ही व्यवहार करेंगे और उसे पर्यटकों के सामने दिखाने के लिए सरकार द्वारा उन्हें रुपए दिए जाएँगे। अभी की तरह दर्शकों को ढूँढने के लिए गलियों में घूमने के बजाय वे आसानी से काम करेंगे, सरकारी वेतन तथा सरकारी मकान लेंगे और अपने दर्शकों के आने की प्रतीक्षा करेंगे। उसमें ही साँपों को पहले जैसे ही तरीके से मारा जाएगा।
यदि वे आगे क्या करें इसके बारे में इतने चिंतित हैं तो मैं यह सुझाव देती हूँ कि उनकी सारी चिंताओं को दूर करने के लिए उन्हें तिहाड़ जेल अथवा आगरा की जेल में सरकारी मेहमान के रूप में रखकर कालीन बनाने के लिए कुछ पैसे दिए जा सकते हैं।
आगरा के एक लेखक ने इस पर दुःख व्यक्त किया है कि बीन लुप्त हो जाएगी। ये बिलकुल बकवास है। बीन एक संगीत वाद्य के रूप में ऐसे किसी भी व्यक्ति को सिखाई जा सकती है जो इसे सीखना चाहे। ऐसा नहीं है कि यह वाद्य यंत्र सिर्फ किसी पशु के साथ ही अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है, जैसे कि सितार सिर्फ देवी सरस्वती के साथ ही नहीं जुड़ी हुई है।वहीं लेखक लिखता है कि मदारी सरकार के लिए उपयोगी हो सकते हैं, क्योंकि वे साँपों से विष को निकालकर साँप के विष वाले संस्थानों को विष की आपूर्ति कर सकते हैं। दुर्भाग्यवश यह भी असत्य है, क्योंकि उन्हें साँप के विष वाले दाँतों में से विष निकालना आता तो वे उन्हें हथौड़े से नहीं तोड़ते। मैंने अभी तक कई हजारों साँपों को पकड़ा होगा, जिनमें से सभी के जबड़े टूटे हुए थे। ँपेरा शब्द इस विनाशक व्यापार को काफी लंबे समय तक किए जाने के लिए उत्तरदायी है। कोई भी साँप को मोहित नहीं कर सकता। वे बहरे होते हैं और उनको दिखाई भी कम ही देता है। वे इसलिए झूमते हैं क्योंकि वे एक ऐसी डंडी जो कि बीन होती है, के किनारे को देख सकते हैं जो खतरनाक तरीकों से उनकी ओर आ रही होती है और वे उसके प्रहार से बचना चाहते हैं। जो लोग साँपों को पकड़कर थैले में डालते हैं, उन्हें उनके सही नाम से बुलाया जाना चाहिए, जैसे साँप का उपयोग करने वाले अथवा अवैध शिकारी या भगवान विष्णु के सबसे प्रिय नागदेवता, शेषनाग के हत्यारे। manka

Saturday, October 18, 2008

गोवा में शिक्षा मंत्री की पत्‍‌नी के खिलाफ शिकायत

गोवा में अब शिक्षा मंत्री की पत्‍‌नी के खिलाफ भी शिकायत दर्ज हो गई है। मंत्री के बेटे पर पहले ही दुष्कर्म का मुकदमा दर्ज है। इसमें खुद मंत्री भी सह अभियुक्त हैं। अब पत्‍‌नी पर आरोप लगाया गया है कि वह मुकदमा वापस लेने के लिए दबाव डाल रही हैं। शिकायत पीड़िता की मां ने दर्ज कराया है। इस बीच, पीड़िता की वकील और सामाजिक कार्यकर्ता पर हुए हमले के सिलसिले में पांच और लोगों को गिरफ्तार किया गया।14 वर्षीय पीड़िता की मां, जर्मन शोधकर्ता ने बास्को जार्ज के पुलिस अधीक्षक के यहां शिकायत दर्ज कराई है। इसमें कहा गया है कि तीन अक्टूबर को शिक्षा मंत्री ए. मानसेरेते की पत्‍‌नी जेनिफर ने उनसे तीन अक्टूबर को संपर्क किया था। तब जेनिफर ने बेटे रोहित के खिलाफ दायर मुकदमा वापस लेने के लिए दबाव बनाया। जेनिफर के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 195 ए, सेक्शन 506 के तहत शिकायत दर्ज की गई है।रोहित पर जर्मन लड़की का यौन शोषण व बलात्कार करने और उसे अश्लील एसएमएस भेजने के आरोप में मुकदमा दर्ज किया गया है। उसके खिलाफ पुलिस ने लुकआउट नोटिस भी जारी कर दिया है।इसी बीच, पुलिस के एक वरिष्ठ अधिकारी ने शनिवार को बताया कि जर्मन महिला की वकील और सामाजिक कार्यकर्ता आइरिस राड्रिग्स पर हमले के सिलसिले में महाराष्ट्र के महाबलेश्वर से शुक्रवार को पांच लोगों को गिरफ्तार किया गया। राड्रिग्स पर 13 अक्टूबर की रात तब हमला किया गया था, जब वह पणजी के एक रेस्तरां में अपने किसी साथी के साथ खाना खा रहे थे। इस सिलसिले में अगले दिन तीन लोगों की गिरफ्तारी हुई थी।

पांच जवान बच्चे, फिर भी जिंदगी लावारिस

जब मां-बाप बच्चों का पालन पोषण करते हैं तो उनके मन में यही बात रहती है कि बड़े होकर यही बच्चे उनका नाम रोशन करेंगे और बुढ़ापे का सहारा बनेंगे। लेकिन आज नई पीढ़ी में मां-बाप के प्रति संवेदना समाप्त होती जा रही है। कभी-कभी तो वे बुजुर्ग माता-पिता से पल्ला झाड़ने के लिए उन्हें दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर कर देते हैं। ऐसी ही कहानी है 76 वर्षीय हंसराज मलिक की।दक्षिणी दिल्ली के आश्रम इलाके के हरीनगर निवासी हंसराज मलिक की पत्नी सालों पहले चल बसीं। उन्हें भरोसा था कि पांच बच्चे हैं, उनके सहारे बुढ़ापा आराम से कट जाएगा। मगर, तीन जवान बेटों व दो बेटियों के रहते वे चार दिनों से गली के फुटपाथ पर पड़े हैं। उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं है। गली में पड़े अपनों का इंतजार कर रहे हंसराज मलिक की यह दशा देखकर कोई सोच भी नहीं सकता कि वे कभी शहर के ठीकठाक कपड़ा व्यापारी हुआ करते थे।कम उम्र में पत्नी की मौत के बाद भी उन्होंने अपने तीनों बेटों आलोक, अजय, संजय व बेटी नीना व सोनिया के परवरिश में कोई कमी नहीं छोड़ी। आलोक व अजय आज फाइनेंस के धंधे में हैं। आलोक फरीदाबाद में अपने परिवार के साथ तो अजय रोहिणी में अपने परिवार के साथ रह रहे हैं। तीसरा बेटा संजय बनारस में नौकरी कर रहा है। वह वहीं बस गया है। दो बेटियों में बड़ी नीना भी शादी के बाद गाजियाबाद में अपने पति के साथ रह रही है। हंसराज मलिक कुछ दिनों से अपनी सबसे छोटी बेटी सोनिया के साथ हरीनगर में रह रहे थे। चार दिन पहले पिता से पिंड छुड़ाने के लिए सोनिया भी अपने फ्लैट में ताला लगाकर कहीं चली गई और हंसराज मलिक पांच जवान बच्चों के रहते फुटपाथ पर आ गए। चार दिनों से हरीनगर की गली में फटे पुराने कपड़ों के बीच रह रहे मलिक अपने बच्चों को दोष देने के बजाय कहते हैं कि शायद उनकी परवरिश में ही कोई कमी रह गई थी। वे अपनी किस्मत को भी कोस रहे हैं। आस-पड़ोस के लोग हंसराज की हालत पर तरस खाते हुए उन्हें कुछ न कुछ खाने को दे देते हैं।कुछ लोगों ने उनके बेटों से टेलीफोन पर संपर्क किया तो पहले नाम पता पूछा। जैसे ही उन्हें बताया गया कि उनके पिता सड़क पर लावारिस हालत में पड़े हैं तो रांग नंबर कहकर फोन काट दिया। पड़ोसी ओम प्रकाश सिंघल ने बताया कि हंसराज मलिक 13 अक्टूबर से गलियों में पड़े हैं। वह बीमारी के चलते चलने-फिरने में भी सक्षम नहीं हैं। बृहस्पतिवार सुबह मोहल्ले के लोगों ने सौ नंबर पर फोन कर पुलिस को बुजुर्ग की हालत के बारे में बताया तो कुछ देर बाद दो पुलिस वाले आए। लेकिन उन्हें भी बुजुर्ग की हालत पर तरस नहीं आया। वह थोड़ी देर में आने की बात कह चलते बने। किसी ने टेलीफोन से जब इसकी सूचना सीनियर सिटीजन सेल को दी तो वहां से भी निराशा हाथ लगी।इस संबंध में जब news ripoter ने सीनियर सिटीजन सेल से बात की तो कहा गया, जब बुजुर्गो की सहायता के लिए टोल फ्री नंबर 1291 पर सूचना मिलती है तो उसका काम बस इतना है कि सूचना पुलिस को दे दे। जिससे पुलिस को आगे की कार्रवाई करने में आसानी हो।

Friday, October 17, 2008

वर्षों बाद साथ नजर आएँगे विनोद-हेमा


विनोद खन्ना और हेमा मालिनी वर्षों बाद साथ काम करने जा रहे हैं। राजमाता विजयाराजे सिंधिंया के जीवन पर बनने जा रही फिल्म ‘एक थी रानी ऐसी भी’ में दोनों दिखाई देंगे। हेमा मालिनी इस फिल्म में राजमाता की भूमिका निभाएँगी, जबकि विनोद खन्ना जीवाजीराव सिंधिया की भूमिका में नजर आएँगे। इस फिल्म का निर्देशन गुल बहादुर सिंह कर रहे हैं। विनोद खन्ना इन दिनों ज्यादा फिल्मों में नहीं दिखाई दे रहे हैं क्योंकि उन्हें मनपसंद भूमिकाएँ नहीं मिल रही हैं। जब उन्हें फिल्म के निर्देशक ने इस रोल के बारे में बताया तो वे तुरंत तैयार हो गए। विनोद खन्ना को उनके रॉयल लुक की वजह से इस फिल्म के लिए चुना गया। बाल आंग्रे की भूमिका सचिन खेड़ेकर निभाएँगे। फिल्म की शूटिंग ग्वालियर, मुंबई और दिल्ली में होगी।

पाक की एकता को खतरा-रहमान

पाकिस्तान की सूचना मंत्री शेरी रहमान ने मंगलवार को चेतावनी दी कि अलकायदा तालिबान और स्थानीय जिहादी तत्व देश पर नियंत्रण स्थापित करना चाहते हैं, जिससे राष्ट्र की एकता के लिए 'गंभीर आंतरिक खतरा' पैदा हो गया है।
सूत्रों के हवाले से मीडिया की खबरों के अनुसार रहमान ने यह भी कहा कि पाकिस्तान में चरमपंथी संगठनों, तालिबान और जिहादी तत्वों का अफगान तालिबान और जम्मू-कश्मीर के गुटों के साथ संपर्क है।रहमान ने यह टिप्पणी संसद के संयुक्त सत्र में की जिसे मंगलवार को एक बार फिर स्थगित कर दिया गया। विपक्षी सांसद पाकिस्तान में अचानक आतंकवादी हमलों में तेजी के कारणों पर सरकार से जवाब की माँग कर रहे थे।इसके पहले कल का सत्र टाल दिया गया था, क्योंकि जैकोबाबाद से नेशनल असेंबली के सदस्य नसरुल्ला खान बिजरानी की मृत्यु हो गई थी।अपनी टिप्पणी के बाद रहमान ने विपक्ष के सवालों का जवाब नहीं दिया और अध्यक्ष फहमीदा मिर्जा ने फैसला दिया कि 'इन कैमरा' सत्र में सिर्फ ब्रीफिंग होनी है और एजेंडा में चर्चा तथा प्रश्नोत्तर शामिल नहीं है। इसके बाद अध्यक्ष ने सत्र स्थगित कर दिया। बुधवार को सरकार की आतंक विरोधी नीति पर चर्चा होने की संभावना है।

Thursday, October 16, 2008

प्रतिबंध की राजनीतिक नौटंकी

विजयादशमी के पावन पर्व पर बजरंग दल ने केन्द्र सरकार को ललकारा- 'हमारे संगठन पर प्रतिबंध लगाने का दुस्साहस न करो, वरना 'गंभीर परिणाम' होंगे। जब तुम सिमी के खिलाफ अदालत में सबूत पेश नहीं कर पाए, तो हमारे विरुद्ध कौन-सा प्रमाण पेश कर सकोगे?' सचमुच बजरंग दल 'हिम्मतवालों' की पार्टी है। दशहरे के दिन ही आगरा में बजरंग दल का भगवा दुपट्टा लपेटे पचासों बजरंगी खुली गाड़ियों में बंदूक और पिस्तौल ताने घूमते रहे और मायावती की बहादुर सरकार ने उनका रास्ता रोकने या हथियारों के लाइसेंस माँगने का साहस नहीं दिखाया।

सवाल यह भी है कि बजरंग दल पर प्रतिबंध से क्या किसी धार्मिक उन्माद को रोका जा सकेगा? कुछ नेता या उनके सलाहकार कुछ हफ्ते अपनी पीठ थपथपा लेंगे, लेकिन घृणा फैलाने वाले तत्वों ने तो अनगिनत नामों से मंडलियाँ बना रखी हैं।

उत्तरप्रदेश, बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश या आंध्र-तमिलनाडु में भी जब राजनीतिक छत्रछाया वाले डाकू राइफलों से हवाई फायर करते या किसी बस्ती अथवा उपासना स्थल को जलाते हुए आगे बढ़ते हैं, तब उन्हें कोई नहीं रोकता। सिमी या ऐसे ही नए-पुराने नाम वाले संगठनों से जुड़े कुछ लोग सैकड़ों वर्षों से शांतिप्रिय रहे मेरे अपने मालवा क्षेत्र (उज्जैन-रतलाम-इंदौर) में महीनों तक छिपकर षड्यंत्र रचते रहे, लेकिन चार साल पहले किसी भी चौकस पुलिस अधिकारी ने समय रहते उन्हें गिरफ्तार कर दंडित नहीं करवाया।
दशहरे के दिन मुंबई में बाल ठाकरे परिवार के दो खेमों में बँटे परिजनों ने एक बार फिर उत्तर भारतीयों को धमकी दी -'अभी तो ट्रेलर देखा है। मुंबई केवल हमारे बाप-दादाओं की है। इन बाहरी दो करोड़ लोगों को झुककर, दबकर रहना होगा, वरना...।' इसी तर्ज पर कश्मीर घाटी में जैश-ए-मोहम्मद के आतंकवादी धमका रहे हैं-'कश्मीर सिर्फ हमारा है, दिल्लीवालों को बर्दाश्त नहीं करेंगे।'
इस खबर के लिए अखबार को छपने से कितनी देर रात तक रोका जाए।' मैंने कुर्सी से उठते हुए उन्हें स्नेहपूर्वक समझाया- 'आप दिनभर काम कर चुके हैं। यदि सपना ही देखना है, तो घर पहुँचकर खाना खाकर आज जल्दी सो जाएँ और यदि जल्दी सोने की आदत नहीं है, तो रावण-दहन की पूर्व संध्या पर पास में ही चल रही रामलीला देख आएँ। सत्ता के गलियारों में चल रही राजनीतिक नौटंकी से कुछ काम की बात नहीं निकलने वाली है।' हमारे साथी घर चले गए। उन्हें अधकचरी नाटकबाजी देखने का कोई उत्साह नहीं था।देर रात समाचार एजेंसियों से यही खबर मिली कि केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने बजरंग दल पर प्रतिबंध के लिए देर रात तक विचार किया और कोई फैसला नहीं हो पाया। मंत्रियों में मत-भिन्नता देखने को मिली। हाँ, उड़ीसा में हुई हिंसक सांप्रदायिक घटनाओं को जानने-समझने के लिए मंत्रियों का एक दल वहाँ जाएगा।
धन्य हैं हमारे देश के राष्ट्रीय स्तर के मंत्री, जिन्हें उड़ीसा में हफ्तों से चल रही हिंसा के कारणों को समझने के लिए स्वयं घटना-स्थल पर जाना पड़ेगा। सक्षम सरकार अपने दोस्त जॉर्ज बुश के दिल्ली स्थित अमेरिकी दूतावास से उड़ीसा के संबंध में भेजी जा रही रिपोर्टों की प्रतिलिपि ही कृपापूर्वक प्राप्त कर ले, तो अपने मंत्रियों को उड़ीसा जाने का कष्ट ही नहीं उठाना पड़े।
पता नहीं भारत में अमेरिकी गुप्तचर संगठन एफबीआई का दफ्तर होने के बावजूद भारत सरकार के बड़े गुप्तचर उससे कितना तालमेल रख पाते हैं? यहाँ तो एक काडर के रहते हुए केन्द्र और राज्य सरकारों के आला अफसर समन्वय नहीं रख पाते और हिंसा की अथवा आतंकी घटनाएँ होती रहती हैं।
सवाल यह भी है कि बजरंग दल पर प्रतिबंध से क्या किसी धार्मिक उन्माद को रोका जा सकेगा? कुछ नेता या उनके सलाहकार कुछ हफ्ते अपनी पीठ थपथपा लेंगे, लेकिन घृणा फैलाने वाले तत्वों ने तो अनगिनत नामों से मंडलियाँ बना रखी हैं। तालिबान, जैश-ए-मोहम्मद, सिमी पर देश-दुनिया के प्रतिबंधों के बावजूद हिंसक हमलों में कमी नहीं आई।
इसी तरह बजरंग दल, शिवसेना, विश्व हिन्दू परिषद, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या किसी राजनीतिक दल पर प्रतिबंध के बल पर कोई सरकार शांति स्थापना नहीं कर सकती। बेईमान, भ्रष्ट और अपराधियों के लिए कभी कोई कानून काम नहीं करता।

एकता का ताना-बाना तोड़ती घटनाएँ

उड़ीसा में असहाय ईसाइयों पर जारी हिंसक ताण्डव को 50 से ज्यादा दिन हो चुके हैं लेकिन हमलों और हत्याओं का सिलसिला थमेगा इसके संकेत न के बराबर हैं। कंधमाल में ईसाइयों पर हमले होते रहे, सरकार बाद में हरकत में आई। कंधमाल के बाद बौध जिला हिंसा और लूटपाट का केंद्र बन गया। आगे क्या होने वाला है, लगता है किसी को नहीं पता। हालाँकि जो इलाके अभी अपेक्षाकृत शांत लग रहे हैं, पर वहाँ भी हालात सामान्य तो नहीं ही हैं, हिंसा में मारे गए लोगों के शव दफनाने का इंतजाम 45 दिन बाद हो सका। यह सुरक्षा के भारी इंतजामात के बाद ही संभव हो पाया। प्रत्यक्षदर्शियों का दावा है कि आगजनी

उड़ीसा त्रासदी में कई और भी दुखदायी पेंच हैं। लेकिन हैरत की बात है कि न तो उड़ीसा सरकार और न ही बजरंग दल यह मानेंगे कि हिंसा और नरसंहार का यह ताण्डव तब शुरू हुआ जब स्वामी सरस्वती की हत्या के बाद नक्सलियों ने इसकी तत्काल जिम्मेदारी ले ली

के दौरान जो लोग अपना घर छोड़कर जान बचाने के लिए जंगलों में जा छुपे थे, वे अब भी वहीं या किसी अन्य सुरिक्षत ठिकाने की तलाश में भटक रहे हैं। जान बचाने के लिए भागे-भागे फिर रहे ऐसे लोगों की संख्या 50 हजार के आसपास बताई जा रही है। उनकी हिम्मत नहीं हो पा रही कि वे अपने घरों को लौट सकें या फिर पुनर्र्वास के बारे में सोचें।

इसलिए कि उन्हें बजरंग दल के गुण्डों ने धमकी दी है कि अगर उन्होंने फिर से हिन्दू धर्म नहीं अपनाया तो मौत के घाट उतारा दिया जाएगा। दिल्ली के एक अखबार ने हिंसा के शिकार ऐसे ही परिवार की खबर भी छापी है जिससे पता चलता है कि कोई एक महीने तक प्रतिरोध करने के बाद अंततः उस ईसाई शरणार्थी को दबाव के आगे घुटने टेकने पड़े। इन भयावह हालात में राज्य के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक के इस बयान को कौन गंभीरता से लेगा कि हालात को काबू करने के लिए वे जो कुछ कर सकते थे उन्होंने किया।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अब तक की अपनी सबसे लंबी विदेश यात्रा के बाद जब स्वदेश लौटे तो उन्होंने कहा कि उड़ीसा (और देश के अन्य हिस्सों में भी) में ईसाई विरोधी दंगों की वजह से विश्वभर में भारत की नाक नीची हुई। जाहिर है, अगर प्रधानमंत्री ऐसी घोषणा करते हैं तो उसकी वाजिब वजहें हैं। फ्रांस के राष्ट्रपति सरकोजी ने मनमोहन सिंह से इस बारे में तल्ख बात की, अमेरिका ने थोड़े शालीन तरीके से अपनी प्रतिक्रिया जताई और इसके बाद दिल्ली यात्रा पर आई अमेरिका की विदेश मंत्री कोंडोलीजा राइस ने भी इस मसले पर अपनी चिंता का फिर से इजहार किया।इससे पहले इटली की सरकार ने भारत के राजदूत को तलब कर उड़ीसा की हिंसा पर अपनी चिंता और दुख व्यक्त किया। पोप भी इन घटनाओं से आहत हैं। लेकिन दुख की बात यह है कि देश के अंदर उड़ीसा की घटनाओं को लेकर वैसी शर्मिंदगी का अहसास नहीं है जैसा कि विश्व बिरादरी में है। खासकर उड़ीसा के मुख्यमंत्री और सत्ता में उनके सहयोगी इस मामले को लेकर शर्मसार नहीं दिखते। हास्यास्पद बात यह है कि नवीन पटनायक ने अपने जीवन का एक लंबा समय विदेश में बिताया है लेकिन एक दशक तक मुख्यमंत्री रहने के बावजूद वे उड़िया नहीं बोल पाते।
पटनायक के बहुत से आलोचक कहते हैं कि भाजपा शासित अन्य राज्य, कर्नाटक और मध्यप्रदेश में भी ईसाई अल्पसंख्यकों पर हिंसा हुई थी, लेकिन वहाँ इन घटनाओं पर तार्किक तरीके से और तेजी के साथ नियंत्रण पा लिया गया। कर्नाटक के नव-निर्वाचित मुख्यमंत्री ने बजरंग दल के नेताओं को गिरफ्तार करने में कोई हिचक नहीं दिखाई। जाहिर है ऐसे हालात में मौखिक जुगाली के बजाय आपका काम ज्यादा बोलता है।
उड़ीसा त्रासदी में कई और भी दुखदायी पेंच हैं। लेकिन हैरत की बात है कि न तो उड़ीसा सरकार और न ही बजरंग दल यह मानेंगे कि हिंसा और नरसंहार का यह ताण्डव तब शुरू हुआ जब स्वामी सरस्वती की हत्या के बाद नक्सलियों ने इसकी तत्काल जिम्मेदारी ले ली। उड़ीसा में इन अमानवीय अपराधों के जिम्मेदार लोग अलग-अलग तरह की बातें उड़ा रहे हैं। वे यह जताने की कोशिश कर रहे हैं कि यह टकराव धार्मिक नहीं है बल्कि दो आदिवासी गुटों की रंजिश की उपज है। इसके साथ ही वे यह बात भी फैला रहे हैं कि वीएचपी नेता की हत्या के बाद उपजा गुस्सा धर्मांतरण के कारण भड़का और बढ़ता चला गया।
इसमें संदेह नहीं है कि ईसाइयों पर हो रही हिंसा और भंग हो चुकी कानून व्यवस्था ने

अगर नेहरू के दौर से तुलना करें तो हम पाएँगे कि अपनी नीतियों और सत्ता द्वारा तुरंत कार्रवाई करने की इच्छाशक्ति के मामले में बड़ी तेजी से गिरावट आई है। इसी गिरावट की वजह से मामले इतने जटिल और बेकाबू हो गए हैं

राष्ट्रीय एकता और शांतिपूर्ण तरीके से विकास की चुनौती को कई गुना बढ़ा दिया है। एक तो इस वक्त आतंकवाद एक बड़ी चुनौती बना हुआ है उस पर देश के अंदर भड़की यह साम्प्रदायिक आग समाज के लिए एक बड़ा खतरा बन गई है। इससे राष्ट्रीय एकता का ताना-बाना बिखरने की आशंका है। मामला सिर्फ उड़ीसा का नहीं है असम में भी बोडो और बांग्लादेशियों (ज्यादातर मुसलमानों) के बीच टकराव है। अगर कंधमाल में 50 हजार ईसाई विस्थापित हैं तो असम के बोडो जिलों में अपनी जान की खातिर भटकने वालों की संख्या 90 हजार के आसपास है।

अगर नेहरू के दौर से तुलना करें तो हम पाएँगे कि अपनी नीतियों और सत्ता द्वारा तुरंत कार्रवाई करने की इच्छाशक्ति के मामले में बड़ी तेजी से गिरावट आई है। इसी गिरावट की वजह से मामले इतने जटिल और बेकाबू हो गए हैं। संकट के समय सत्ता का व्यवहार इसकी गवाही देता है। तुरंत कार्रवाई करने के बजाय नवीन पटनायक और यूपीए ने एक-दूसरे पर आरोप लगाने का खेल शुरू कर दिया। जब पटनायक ने और ज्यादा अर्धसैनिक बलों की माँग की तो दिल्ली से जवाब आया कि उड़ीसा में तो पहले से ही ज्यादा सैनिक तैनात हैं।प्रमुख विपक्षी पार्टी भाजपा की भूमिका कम हैरतंगेज नहीं है। जिस समय बजरंग दल के नेता ईसाइयों को सबक सिखाने की धमकी देकर गर्व महसूस कर रहे थे उसी समय भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने साफ कहा कि बजरंग दल का इस हिंसा से कोई लेना-देना नहीं है। बाद में आडवाणी ने मामले को थोड़ा ठंडा करने की कोशिश की। जब आडवाणी ने दिल्ली के आर्कबिशप से मिलकर उड़ीसा की घटनाओं के लिए माफी माँगी और नन के बलात्कार पर शर्मसार हुए तो बजरंग दल ने गुस्सा कर आडवाणी के पुतले फूँके। आखिर यह देश जा कहाँ रहा है? निश्चित रूप से महाशक्ति बनने की राह पर तो नहीं।

Tuesday, October 14, 2008

आर्थिक संकट में हनुमान चालीसा

वैश्विक वित्त के मक्का कहे जाने वाले वॉल स्ट्रीट में अमेरिकी वित्तीय संकट के भूकम्प से पैदा हुई सुनामी की लहरें योरपीय देशों को झकझोरती हुई मुंबई की दलाल स्ट्रीट तक पहुँच गई हैं। इस वित्तीय सुनामी से मुंबई शेयर बाजार झटके खा रहा है। संवेदी सूचकांक (सेंसेक्स) 2 वर्षों के सबसे निचले स्तर तक लुढ़क चुका है। विदेशी संस्थागत निवेशक (एफआईआई) भारतीय बाजारों से पैसा निकालकर भाग रहे हैं।इस साल जनवरी से अब तक लगभग 10 अरब डॉलर की विदेशी वित्तीय पूँजी देश

रुपया डॉलर के मुकाबले पिछले पाँच वर्षों के न्यूनतम स्तर पर पहुँच गया है। विदेशी पूँजी का पलायन इसी तरह जारी रहा तो शेयर बाजार के साथ-साथ रुपए की कीमत में और गिरावट की आशंका को नकारा नहीं जा सकता। इससे घरेलू निवेशकों का भी विश्वास हिल गया है

छोड़कर जा चुकी है। इसमें भी सिर्फ पिछले कुछ सप्ताहों में 1.5 अरब डॉलर का एफआईआई निवेश भारत से निकल चुका है। विदेशी पूँजी के इस तरह पलायन का असर सिर्फ शेयर बाजार पर ही नहीं पड़ा है बल्कि इसके कारण रुपए की कीमत भी तेजी से गिरी है।
रुपया डॉलर के मुकाबले पिछले पाँच वर्षों के न्यूनतम स्तर पर पहुँच गया है। विदेशी पूँजी का पलायन इसी तरह जारी रहा तो शेयर बाजार के साथ-साथ रुपए की कीमत में और गिरावट की आशंका को नकारा नहीं जा सकता। इससे घरेलू निवेशकों का भी विश्वास हिल गया है। बाजार में घबराहट, अनिश्चितता और अस्थिरता का माहौल है।वित्त मंत्री पी. चिदंबरम चाहे जितने दावे करें कि भारतीय अर्थव्यवस्था का बुनियादी आधार (फंडामेंटल्स) मजबूत है और अमेरिकी वित्तीय संकट का अर्थव्यवस्था पर कोई खास असर नहीं होगा लेकिन उसे सुनने के लिए कोई तैयार नहीं है। अब तो खुद प्रधानमंत्री ने स्वीकार कर लिया है कि अमेरिकी वित्तीय संकट से भारत भी अछूता नहीं रहेगा। यहाँ तक कि उन्होंने यूपीए सरकार की तात्कालिक प्राथमिकताओं की सूची में अमेरिकी वित्तीय संकट से भारतीय अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले कुप्रभावों से निपटने के मुद्दे को आतंकवाद से निपटने की तुलना में पहले स्थान पर रखा है।मनमोहन सिंह का आकलन बिल्कुल सही है। हालाँकि उन्होंने इस नतीजे पर पहुँचने में बहुत देर कर दी है और संकट दरवाजे पर दस्तक दे रहा है। मुद्रास्फीति की दर बेकाबू बनी हुई है। दो अंकों में पहुँच गई मुद्रास्फीति की दर नीचे आने का नाम नहीं ले रही। इसका सीधा असर ब्याज दरों पर पड़ा है और रिजर्व बैंक की सख्त मौद्रिक नीति के कारण छोटे-बड़े उद्यमियों और निवेशकों के लिए बैंकों और खुले बाजार से निवेश के वास्ते धन जुटाना मुश्किल हो गया है।यही नहीं, अमेरिकी वित्तीय संकट के कारण बड़े देशी कारपोरेट समूहों के लिए अंतरराष्ट्रीय बाजारों से नए निवेश और विस्तार के वास्ते पूँजी जुगाड़ने के ज्यादातर स्रोत सूख से गए हैं। इसका नए निवेश पर नकारात्मक असर तय है। निवेश में गिरावट अर्थव्यवस्था की विकास दर की रफ्तार पर ब्रेक लगा सकती है। अधिकांश आर्थिक विश्लेषकों और स्वतंत्र एजेंसियों के मुताबिक चालू वित्तीय वर्ष (2008-09) में जीडीपी की वृद्धि दर गिरकर 7 से 7.5 प्रतिशत के बीच रह सकती है।ध्यान रहे कि पिछले कुछ वर्षों से जीडीपी की वृद्धि दर औसतन 9 प्रतिशत से अधिक चल रही थी लेकिन अब प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद ने भी माना है कि चालू साल में जीडीपी की वृद्धि दर 7.5 प्रतिशत के आसपास रहेगी। लेकिन अमेरिकी वित्तीय संकट जिस तरह से गहराता और फैलता जा रहा है, उससे साफ है कि उसके संक्रामक प्रभाव से भारतीय अर्थव्यवस्था की सेहत और गड़बड़ा सकती है। आश्चर्य नहीं कि जीडीपी वृद्धि दर इस साल 7 प्रतिशत से भी नीचे लुढ़क जाए। इसकी ठोस वजहें हैं।

अर्थव्यवस्था को लेकर सबसे बड़ी चिंता यह पैदा हो रही है कि कहीं वह स्टैगफ्लेशन की गिरफ्त में तो नहीं आ रही ? स्टैगफ्लेशन की स्थिति तब पैदा होती है जब एक ओर अर्थव्यवस्था की विकास दर गिर रही हो और दूसरी ओर मुद्रास्फीति की दर बढ़ रही हो या ऊँचाई पर बनी हुई

चालू वित्तीय वर्ष के पहले चार महीनों (अप्रैल-जुलाई) में औद्योगिक उत्पादन के सूचकांक की वृद्धि दर गिरकर मात्र 5.7 प्रतिशत रह गई है जबकि पिछले वर्ष इसी अवधि में इसकी वृद्धि दर 9.7 प्रतिशत थी। हालाँकि इस साल इंद्र देव की कृपा से कृषि क्षेत्र का प्रदर्शन कुछ बेहतर रहने की उम्मीद है लेकिन उद्योग क्षेत्र के साथ-साथ सेवा क्षेत्र की वृद्धि दर में लड़खड़ाहट साफ दिख रही है। साफ है कि अमेरिका सहित दुनिया केअधिकांश विकसित देशों की अर्थव्यवस्थाओं के मंदी के चपेट में आने का असर भारतीय निर्यात पर भी पड़ने लगा है।

दूसरी ओर रुपए की कीमत में गिरावट से आयात महँगा हो गया है। इससे व्यापार घाटा तेजी से बढ़ा है। ताजा आँकड़ों के मुताबिक चालू साल के पहले पाँच महीनों में व्यापार घाटा 42 प्रतिशत बढ़कर 49 अरब डालर तक पहुँच गया। यही नहीं, इस साल की पहली तिमाही में चालू खाते का घाटा 10.72 अरब डालर तक पहुँच गया है जो जीडीपी का 3.6 प्रतिशत बैठता है। चालू खाते का बढ़ता घाटा अर्थव्यवस्था के प्रबंधकों के लिए एक नया सिरदर्द है और प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकारों ने भी इसे लेकर गहरी चिंता जताई है। अर्थव्यवस्था को लेकर सबसे बड़ी चिंता यह पैदा हो रही है कि कहीं वह स्टैगफ्लेशन की गिरफ्त में तो नहीं आ रही ? स्टैगफ्लेशन की स्थिति तब पैदा होती है जब एक ओर अर्थव्यवस्था की विकास दर गिर रही हो और दूसरी ओर मुद्रास्फीति की दर बढ़ रही हो या ऊँचाई पर बनी हुई हो। हालाँकि इस मुद्दे पर अर्थशास्त्रियों में मतभेद है लेकिन अर्थव्यवस्था उस जैसी स्थिति में ही फँसती दिख रही है। अगर किसी चमत्कार ने नहीं बचाया तो एक बार स्टैगफ्लेशन की गिरफ्त में फँसने के बाद अर्थव्यवस्था का उससे बाहर निकलना न सिर्फ बहुत मुश्किल हो जाता है बल्कि आम लोगों के लिए वह प्रक्रिया बहुत तकलीफदेह हो जाती है। साफ है कि आर्थिक संकट की सुरसा ने अपना आकार बढ़ाना शुरू कर दिया है। लेकिन लाख टके का सवाल है कि क्या मनमोहन सिंह इस सुरसा से निपटने के लिए हनुमान प्रयास करेंगे? अफसोस, हनुमान प्रयास तो नहीं यूपीए सरकार ऊँट की तरह रेत में सिर छिपाकर हनुमान चालीसा जरूर पढ़ती दिख रही है। लेकिन क्या इससे संकट टल जाएगा ? ankur vats

Monday, October 13, 2008

सिग्नल मिले बिना दौड़ी मालगाड़ी

रेल प्रशासन में सोमवार को सुबह आठ बजे उस समय खलबली मच गई, जब सूचना मिली कि स्टेशन के पास एक मालगाड़ी सिग्नल मिले बिना गार्ड और ड्राइवर की लापरवाही के कारण आगे लाइन में एक-दूसरी लाइन को जोड़ने वाली कैंची में जा फंसी और पलटने से बाल-बाल बची।मौके पर रेलवे के कई अफसर दौड़ गए और सीमा सिनेमाघर के पास रेलवे क्रासिंग को करीब दो घंटे बंद रखा गया। फाटक बंद कराए जाने की पुष्टि खुद गेटमैन ने की है। मालगाड़ी सीडी साइडिंग पर खड़ी हो गई, तब अफसरों ने राहत की सांस ली।इसके बाद जिस प्वाइंट से सिग्नल बनता है उसे दुरुस्त कराने में टीम जुट गई। प्रयास किए गए कि किसी भी तरह यह मामला टूंडला कंट्रोल के संज्ञान में न जाए, लेकिन कुछ देर में जब मीडियाकर्मी पहुंच गए तो फिर स्थानीय अधिकारियों को पूरा मामला टूंडला कंट्रोल रूम के संज्ञान में लाना मजबूरी बन गई। इस मामले की विभागीय स्तर से जांच शुरू हो गई है। जांच में दोषी लोगों के खिलाफ कार्रवाई तय है।

किराए पर लीजिए पति की सेवाएं

क्या आप घर के काम में हाथ नहीं बंटाने वाले अपने पति से परेशान हैं? तो, सब कुछ भूलकर हमारे पास आइए। दरअसल, यह विज्ञापन एक ऐसी कंपनी की बेवसाइट का है, जो किराए के पति उपलब्ध कराती है। जी हां, अर्जेटीना की राजधानी ब्यूनस आयर्स में एक कंपनी महिलाओं को 15.50 डालर [करीब 760 रुपये] प्रति घंटे के हिसाब से किराए के पति उपलब्ध करा रही है। कंपनी का कहना है कि जो महिला अपने घर के काम में रुचि नहीं लेने वाले पति से परेशान है, वह किराए के पति की सेवाएं ले सकती है। इस कंपनी का नाम भी बड़ा ही दिलचस्प हसबेंड फार रेंट रखा गया है। कंपनी का दावा है कि यह सुविधा अकेली, तलाकशुदा और विधवा महिलाओं के लिए बहुत काम की है। कंपनी द्वारा उपलब्ध कराए जाने वाले किराए के पति बिजली, लकड़ी सहित घर के सभी कामों में पारंगत हैं। कंपनी के मालिक डेनियल अलोंसो ने बताया कि उन्हें यह अजीबोगरीब आइडिया उस दिन आया जब उनकी पड़ोसन ने अलोंसो की पत्नी से अपना पति किराए पर लेने का मजाक किया। 56 वर्षीय अलोंसो का दावा है कि उनकी कंपनी के पास अभी दो हजार ग्राहक हैं। अलोंसो ने कहा कि सस्ते में घर के काम निपट जाने के कारण महिलाओं को यह सुविधा खूब पसंद आ रही है। ankur vats

Sunday, October 12, 2008

मंत्री पुत्र पर यौन शोषण का आरोप

जर्मनी के एक शोधकर्ता ने गोवा के शिक्षा मंत्री के बेटे पर उसकी बेटी का यौन शोषण का आरोप लगाया है। शोधकर्ता फैडेला फूच ने आरोप लगाया है कि उसकी 14 वर्षीय बेटी को मंत्री का बेटा मानसिक रूप से भी प्रताड़ित कर रहा है। उन्होंने आरोप लगाया कि गोवा पुलिस आरोपी को बचाने में लगी हुई है। इसीलिए पुलिस केस दर्ज करने में भी विलंब कर रही है।फूच रविवार को यहां संवाददाताओं से बातचीत कर रहे थे। उन्होंने बताया कि वह लंबी अवधि के वीजा पर गोवा आए हुए हैं। उन्होंने दो अक्टूबर को राज्य के शिक्षा मंत्री अतानासियो मोनसेरेते के बेटे रोहित के खिलाफ अपनी बेटी का यौन शोषण और मानसिक प्रताड़ना की शिकायत दर्ज करवाई थी। उन्होंने आरोप लगाया कि पुलिस उसके खिलाफ कार्रवाई करने के बजाय मेरे ऊपर शिकायत वापस ले लेने के लिए दबाव डाल रही है। उन्होंने मांग की कि मंत्री के बेटे के खिलाफ कार्रवाई की जानी चाहिए। ankur vats

पुत्र व बहन समेत तीन की बलि दी

उड़ीसा के मयूरभंज जिले में स्थित अनिबाजदा में एक आदिवासी ने अपने पुत्र व बहन समेत तीन लोगों की बलि दे दी।पुलिस ने शनिवार को बताया कि आदिवासी बंशीधर मधियाल ने कल रात पूजा की और फिर एक धारदार हथियार से अपनी बहन कतिना नायक [35 वर्ष], पुत्र जगन [13 वर्ष] और रिश्तेदार रेखा [10 वर्ष] पर हमला कर दिया। जिससे उसकी बहन व रिश्तेदार की मौके पर ही मौत हो गई। जबकि गंभीर रूप से घायल जगन को पास ही स्थित बेतानाती के अस्पताल में भर्ती कराया गया जहां उसकी मौत हो गई।पुलिस ने कहा कि शासकीय कार्यालय में कर्मचारी मधियाल को हिरासत में लिया गया है और बाकी कार्रवाई की जा रही है। पुलिस ने कहा कि हालांकि इस हत्या के पीछे के कारण का पता नहीं लगाया जा सका है लेकिन प्रारंभिक जांच में संकेत मिले हैं कि यह मानव बलि का मामला हो सकता है, क्योंकि आरोपी बीते दो दिन से देर रात तक पूजा कर रहा था। कतिना और रेखा पास ही स्थित गुडागांव ग्राम में रहती थीं। वे मधियाल के घर दशहरा मनाने गई थीं।

सोनिया के ड्रीम प्रोजेक्ट को मायावती का झटका

यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी के 'ड्रीम प्रोजेक्ट' को यूपी की मायावती सरकार ने तगड़ा झटका दिया है। उनके निर्वाचन क्षेत्र रायबरेली में रेल कोच फैक्ट्री के लिए भूमि अधिग्रहण की अपनी समस्त कार्रवाई को रद कर दिया है। फैक्ट्री के लिए मंगलवार को सोनिया गांधी भूमि पूजन करने वाली थीं। राज्य सरकार ने बताया है कि वैकल्पिक जमीन उपलब्ध कराने के लिए जिलाधिकारी को निर्देशित किया गया है।

यूपी सरकार ने रेल कोच फैक्ट्री के लिए ग्राम समाज की 189.25 हेक्टेयर जमीन का अधिग्रहण 19 मई, 2008 को किया था। अचानक 11 अक्टूबर की रात में राज्य सरकार ने अपनी इस अधिग्रहण की कार्रवाई को निरस्त कर दिया। पूरी जमीन फिर से ग्राम समाज में निहित कर दी। रविवार को मुख्यमंत्री के प्रमुख सचिव विजय शंकर पांडे ने इसकी जानकारी प्रेस कांफ्रेंस में दी। सरकार की तरफ से एक प्रेस नोट भी जारी किया गया, जिसमें इस पूरे प्रकरण पर पक्ष रखा गया है। बताया गया है कि जिलाधिकारी रायबरेली ने दो दिन पहले यानी 10 अक्टूबर को शासन को अपनी रिपोर्ट भेजी थी। रिपोर्ट में बताया गया है-'रेल कोच फैक्ट्री के लिए भूमि अधिग्रहण को लेकर प्रभावितों और पास-पड़ोस के ग्रामीणों में आक्रोश है। उन्हें लगने लगा है कि खाली पड़ी गांव सभा की यह भूमि जिसका पट्टा मिलने की उन्हें वर्षो से आशा थी, वह एक तरह से समाप्त हो गई है। प्रदेश सरकार विभिन्न गांव सभाओं के गरीब, जिनमें ज्यादातर अनुसूचित जाति, पिछड़ी जाति और अपर कास्ट के गरीब तबके के लोग हैं, उनको जमीनें न देकर भूमिहीन उद्योगों के हितों के विरुद्ध कार्य कर रही है। 'विजय शंकर पांडेय इस सवाल का जवाब नहीं दे पाए कि रायबरेली जिले के लोग लालगंज एवं डलमऊ क्षेत्र में रेल कोच फैक्ट्री के लिए दी गई भूमि का विरोध किसके नेतृत्व में कर रहे हैं। पांडेय के अनुसार भूमि को लेकर लोगों की नाराजगी के बारे में जिला पुलिस एवं एलआईयू ने डीएम रायबरेली को जानकारी दी थी। उसी जानकारी केआधार पर जिलाधिकारी ने 10 अक्टूबर को शासन को रिपोर्ट भेजी। रिपोर्ट में बताया गया है कि स्थानीय लोगों को अब यह आशंका है कि फैक्ट्री के लिए 700 एकड़ भूमि और ली जाएगी। जिसके चलते क्षेत्र में भूमिहीनों की संख्या बढ़ेगी। उन्हें खाली पड़ी भूमि पट्टे पर नहीं मिलेगी। पांडेय ने बताया कि डीएम रायबरेली ने ग्रामीणों की इस स्थिति से शासन को अवगत कराते हुए यह भी लिखा है कि स्थानीय जनता में काफी रोष है। आत्मदाह एवं खूनखराबे की नौबत आ सकती है। यह स्थिति शांति व्यवस्था की दृष्टि से घातक होगी। पूरे जिले में कानून व्यवस्था की स्थिति पर इसका प्रभाव पड़ सकता है। इन परिस्थितियों में रेल कोच फैक्ट्री को ग्रामसभा की भूमि अधिग्रहीत करके दिए जाने के संबंध में गत 19 मई को जारी शासनादेश को निरस्त किया जाए।पांडेय के मुताबिक डीएम के पत्र पर राजस्व विभाग से विचार-विमर्श किया गया। विस्फोटक हो रही स्थितियों को ध्यान में रखते हुए भूमि अधिग्रहण की कार्रवाई को निरस्त करने का निर्णय लिया गया। इसी के साथ भूमि के संबंध में जमा धनराशि को संबंधित संस्था को वापस करने के निर्देश दिए गए। पांडेय ने बताया कि स्थानांतरित की गई गांव सभा की भूमि लगभग 30 वर्षो तक केंद्र सरकार के कृषि फार्म के पास थी। लेकिन इस भूमि पर कोई लाभप्रद कार्यवाही नहीं की गई।फैसले से क्षुब्ध लोग सड़क पर उतरे बरेली। रेल कोच कारखाने की जमीन वापस लिए जाने की खबर सुनने के बाद स्थानीय लोगों का आक्रोश सड़कों पर फूट पड़ा। आक्रोशित लोगों ने दिनभर जमकर हंगामा किया। कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व में जिला मुख्यालय पर व आम जनता ने डेकौली के पास पुतला फूंक सड़क जाम की। लालगंज के पास शेखवापुर, यूसुफपुर, बन्नामऊ, ऐहार, खैरहनी, महमदमऊ, गोविंदपुर वलौली, दतौली व स्टेट फार्म हाउस समेत 542.54 हेक्टेयर भूमि पर रेल कोच कारखाने का निर्माण होना है। 14 अक्टूबर को होने वाले भूमि पूजन के 48 घंटे पहले सरकार ने रेलवे को दी जमीन वापस लेकर एक बार फिर इस योजना में अड़ंगा डाल दिया। प्रतिक्रिया स्वरूप कांग्रेस पार्टी ने शहर के बस अड्डे, सुपर मार्केट में जुलूस निकालकर मुख्यमंत्री मायावती का पुतला फूंका। वहीं पार्टी कार्यालय में सरकार के उक्त फैसले के संबंध में जिला कांग्रेस अध्यक्ष उमा शंकर मिश्र, सांसद प्रतिनिधि किशोरी लाल शर्मा, विधायक अशोक सिंह समेत पार्टी के वरिष्ठ नेता मंत्रणा में लगे थे। सरेनी में ब्लाक अध्यक्ष के नेतृत्व में आक्रोशित लोगों ने मायावती का पुतला फूंका। बछरावां कस्बे के बस स्टेशन पर आक्रोशित लोगों ने मुख्यमंत्री मायावती का पुतला फूंका। हरचंदपुर में चौराहे पर आक्रोशित लोगों ने सरकार विरोधी नारेबाजी करते हुए सूबे की मुखिया का पुतला फूंका। लालगंज के करुणा बाजार चौराहे पर आक्रोशित जन सैलाब उमड़ पड़ा जिसमें बसपा को छोड़कर सभी राजनीतिक दलों ने शिरकत की। सबने कहा कि मामला विकास का है राजनीति का नहीं। चौराहे पर विधायक अशोक सिंह आदि ने मायावती की सरकार को बर्खास्त करने की मांग करते हुए प्रदर्शन शुरू कर दिया।

Saturday, October 11, 2008

मुंबई हमारे बाप की हैः उद्धव ठाकरे

मुम्बई। विजय दशमी के मौके पर हर साल मुम्बई के शिवाजी पार्क में आयोजित की जाने वाली सभा में राज ठाकरे से पस्त उद्धव ठाकरे की शिवसेना दहाड़ लगाते नजर आई। दशहरा के मौके पर लोगों को संबोधित करते हुए कहा उद्धव ठाकरे ने कहा कि, “मुंबई किसी के बाप की नहीं है।” इसके साथ ही, उद्धव ठाकरे ने कहा कि, “मैं नामर्द नहीं हूं और अपने पिता की इस परम्परा की रक्षा कर सकता हूं। दूसरे राज्य से आए लोगों को मराठियों का सम्मान करना होगा। ”
बाल ठाकरे ने राज ठाकरे को फटकारा

दशहरा रैली को शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे ने भी संबोधित करते हुए लोगों से अगले आम चुनाव में और विभिन्न राज्यों के आगामी विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की हार सुनिश्चित करने का आह्वान किया।श्री बाल ठाकरे विशेष रूप से बनाए गए मंच पर आए और लगभग 20 मिनट तक बोले। उन्होंने स्वीकार किया कि उम्र बढ़ती है तो हाथ में लाठी थामनी पड़ती है।बाल ठाकरे ने अपने भतीजे राज ठाकरे का नाम लिए बगैर ही स्पष्ट किया कि, “शिवसेना का जन्म ही मराठी भाषियों के हित के लिए हुआ है और बाद में आए लोग उन्हें न सिखाएं कि मराठी हित क्या होता है।”

गैर-मराठी फिर बाल ठाकरे के निशाने पर

गौरतलब है कि, आज ही शिवसेना पार्टी के मुखपत्र ‘सामना’ के संपादकीय में श्री ठाकरे ने अपने भतीजे और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना अध्यक्ष राज ठाकरे, शिवसेना से कांग्रेस में गये नारायण राणे और उन पर दाखिल मानहानि का मुकदमा वापस लेने वाले छगन भुजबल के उनकी उम्र और स्वास्थ्य के प्रति सहानुभूति दर्शाने वाले बयानों को लेकर फटकार लगाई थी और कहा था कि उम्र से भले वह बूढ़े हों पर वह विचारों से युवा हैं।
हालांकि, दशहरे के मौके पर आयोजित इस रैली में वो काफी कमजोर दिख रहे थे। श्री ठाकरे ने देश में विभिन्न स्थानों पर हो रहे बम विस्फोटों का जिक्र करते हुए कहा कि आतंकवाद रोकने की कोई व्यवस्था नहीं है और इसके विपरीत सत्तासीन आतंकवादियों से सहानुभूति रखते हैं।भाषण में उन्होंने कांग्रेस नेता सोनिया गांधी, राकांपा नेता शरद पवार, ऊर्जा मंत्री सुशील कुमार शिंदे, शिवसेना छोड़कर कांग्रेस में गए नारायण राणे समेत कई नेताओं पर अपनी व्यंग्यात्मक शैली में कटाक्ष किए।

फिलहाल ठीक हैं बिग बी, 2 दिन अस्पताल में रहेंगे

मुंबईः पेट में दर्द की शिकायत के बाद अस्पताल में भर्ती कराए गए फिल्म स्टार अमिताभ बच्चन की हालत फिलहाल स्थिर है। उन्हें 48 घंटे तक डॉक्ट
रों की निगरानी में रखा जाएगा। अस्पताल की तरफ से जारी मेडिकल बुलेटिन में कहा गया है कि दवाइयों से अमिताभ को दर्द में राहत मिली है, लेकिन उनकी रिपोर्ट रविवार सुबह तक ही आ पाएगी। सुपरस्टार अमिताभ बच्चन को शनिवार को लीलावती अस्पताल में भर्ती कराया गया था। वह आज ही 66 साल के हुए हैं। उन्हें इनसिशनल हर्निया होने का संदेह है।
भूरे रंग की ऊनी टोपी पहने बच्चन को पहले जांच के लिए जूहू में उनके घर के पास नानावटी अस्पताल ले जाया गया और बाद में बांद्रा के लीलावती अस्पताल में भर्ती कराया गया। बच्चन को आंत की समस्या होने का संदेह है। इस बीमारी से वह 1982 में फिल्म ' कुली ' के सेट पर हुई दुर्घटना के बाद से पीड़ित रहे हैं। हालांकि उनके परिवार और डॉक्टरों ने इस बारे में तत्काल कोई पुष्टि नहीं की है। बच्चन के सचिव सुनील दोषी ने कहा कि शुक्रवार रात अमिताभ ने पेट में दर्द की शिकायत की थी। इस समय उनका इलाज चल रहा है, अभी तक हमें जांच के नतीजे नहीं मिले हैं।

Sunday, October 5, 2008

आतंकवाद की बदलती तह्यवीर

वीरप्पा मोइली की अध्यक्षता में गठित दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग की आठवीं रिपोर्ट की वजह से आजकल जबरदस्त हंगामा मचा हुआ है। वजह है मोइली का आतंकवाद से निपटने के लिए कड़े कानूनों को लाने की वकालत करना। भाजपा को इस वजह से सरकार की आलोचना करने का नया मसाला मिल गया है। लेकिन यहां यह भी याद रखना जरूरी है कि कड़े कानूनों के रहने के बावजूद भी राजग के शासनकाल में भी बड़े आतंकवादी हमले हुए हैं। इस बात को विज्ञान और तकनीकी मंत्री कपिल सिब्बल ने अपने एक लेख में बड़ी शिद्दत से लिखा है। वैसे तो इस बात पर लंबी बहस हो सकती है, लेकिन इस रिपोर्ट में मुल्क में इससे सबसे प्रभावित सूबों के बारे में बड़ी अनोखी बातें सामने आई हैं। मोइली ने गृह मंत्रालय के जिन आंकड़ों का सहारा लिया, उसके मुताबिक 2003 में कुल मिलाकर 1,597 आतंकवादी हमले हुए। इनमें कम से कम 515 लोगों की जानें गईं। लेकिन मजेदार बात यह है कि 2007 में आतंकवादी हमलों की तादाद कम होकर 1565 हो गई थी, लेकिन उनमें मरने वालों की तादाद 696 हो गई थी। दूसरे शब्दों में कहें तो संप्रग सरकार की आतंकवाद से निपटने की नीति ही आज हर तरफ से हमले झेल रही है। ये आंकड़े परिस्थिति में किसी तरह के सुधार को नहीं दिखलाते। इससे भी रोचक तस्वीर तब मिलती है, जब हम इन आंकड़ों को अलग-अलग करके देखते हैं।इन आंकड़ों के मुताबिक नक्सलवादियों का गढ़ समझे जाने वाले आंध्र प्रदेश में हताहतों की तादाद में काफी कमी आई है। 2003 में इस प्रांत में 577 घटनाएं हुई थीं, जिनमें कम से कम 140 लोगों की जानें गई थीं। 2007 में घटनाओं की संख्या घटकर 138 हो चुकी थी और मरने वालों की तादाद भी 45 रह गई थी। राज्य सरकार की आक्रामक तरीके से नक्सलियों से निपटने की नीतियां रंग ला रही हैं। लेकिन छत्तीसगढ़ में हालात सुधरने के नाम ही नहीं ले रहे हैं। राज्य सरकार सलवा जुडुम के तहत आदिवासियों को हथियारों से लैस कर उन्हें अलग-अलग इलाकों में भेज रही है। इससे हालत सुधरने के बजाय और बिगड़ गए हैं। 2003 में यहां केवल 256 नक्सली वारदातों में 74 लोगों की जान गई थी। लेकिन 2007 में नक्सलियो ंने 582 वारदात को अंजाम दिया, जिनमें कम से कम 369 जानें गईं। साथ ही इससे यह बात भी साबित हो जाती है कि माओवादियों से निपटने के लिए राज्य सरकार को खुद कदम उठाने पड़ेंगे।एक और बड़ी बात यह है कि जम्मू-कश्मीर में भी अब हालात तेजी से बदल रहे हैं। यहां मरने वालों और हताहतों की तादाद भी काफी कम हुई है। यह परिस्थिति पूर्वोत्तर के ठीक उलट है, जहां लोगों को पिछले चार सालों में कोई बड़ा बदलाव देखने को नहीं मिला है। इसकी वजह पाकिस्तान के साथ संघर्ष विराम हो सकता है, या फिर उसका अपने पश्चिमी सीमा पर ज्यादा व्यस्त रहना हो सकता है।वजह चाहे जो हो, लेकिन मुल्क सबसे खतरनाक इलाके में अपनी पकड़ खो रहा है। वहीं, पूर्वोत्तर के इलाके में आतंकी वारदात की तादाद में 2003 के मुकाबले में 2007 तक चार गुना का इजाफा हो चुका है। पिछले साल पूर्वोत्तर में करीब 1500 आतंकी वारदात हुईं, जिनमें करीब 500 लोग मारे गए। वहीं, जम्मू कश्मीर में केवल 131 लोग मारे गए थे। तो अब कश्मीर में शांति होने की वजह से जरूरत है कि हम पूर्वोत्तर की तरफ ध्यान दें।

जरूरी है सिंगुर के सबक को याद रखना

टाटा मोटर्स के सिंगुर को अलविदा कहने के साथ ही एक काफी उलझी हुई कहानी भी खत्म हो गई। यह कहानी उलझी हुई इसलिए है क्योंकि यह साफ नहीं है कि कौन जीता और कौन हारा? साथ ही, यह भी साफ नहीं है कि इसके फायदे क्या हुए? टाटा मोटर्स को एक तरह से नुकसान तो हुआ ही है। एक तो उसने सिंगुर में काफी पैसे लगा दिए थे। ऊपर से, उसकी पूरी की पूरी रणनीति भी नाकामयाब हो गई। लेकिन कौन जाने, नई जगह पर नैनो प्रोजेक्ट को शुरू करना कंपनी के लिए खुशियों का पैगाम लेकर आए। घाटा तो पश्चिम बंगाल को भी काफी हुआ है। वह खुद को एक ऐसी जगह के रूप में बनाने में लगा हुई थी, जो कारोबार के लिहाज से काफी अच्छा है। लेकिन इस घटना के बाद सूबे के युवाओं के सुनहरे सपनों को पूरा करने की पूरी कवायद ही मिट्टी में मिल गई है। लेकिन शायद यह घटना हमें यह बता सकती है कि यह पूरी रणनीति ही बहुत ही गलत तरीके से बनाई गई थी। इसमें शुरू से ही सबको साथ लेकर नहीं चला गया। ऐसी हालात में इस परियोजना को आज नहीं तो कल नाकामयाब होना ही था।कई लोग इसके बाद ममता बनर्जी को एक विलेन के रूप में देखेंगे और दिखाएंगे। फिर भी इस जिद्दी और पक्के इरादों वाली नेता में कोई बात तो है, जिससे उन्होंने एक इतनी बड़ी ताकत को भी पीछे हटने पर मजबूर कर दिया। अक्सर ऐसे छुपे रुस्तमों को अच्छा माना जाता है, कम से कम किताबों में तो माना ही जाता है। तो क्या अपने इस कारनामे की वजह से ममता को इतना फायदा मिल पाएगा, जिससे वह अगले चुनाव में बंगाल की सत्ता पर पिछले 35 सालों से काबिज कम्युनिस्टों को बाहर का रास्ता दिखा सकें? यह सब काफी रोचक और अहम सवाल हैं, लेकिन मैं अपना ध्यान सिंगुर से मिली सीख पर ही रखना चाहूंगा। मेरे मुताबिक सिंगुर ने उस बुनियादी बदलावों के बारे में काफी अहम संकेत दिए हैं, जिससे हमारी अर्थव्यवस्था आजकल गुजर रही है। यह कुछ ऐसे बुनियादी मुद्दे हैं, जिनसे निपटने के लिए अर्थशास्त्र और राजनीति शास्त्र की स्कूली किताबों में कई बातें कहीं गई हैं। हालांकि, किताबों में इनसे निपटना काफी आसान है, लेकिन असल जिंदगी में ये बातें सरकारों नानी याद करवा देती हैं। सिंगुर और दूसरी जगहें इस बात की अच्छी मिसाल हैं।इस परिस्थिति के केंद्र में दो आर्थिक मुद्दे हैं, जायदाद का मालिकाना हक और बाजार की कार्यकुशलता। यह कहना काफी हद तक सही होगा कि इन्हीं दोनों मुद्दों की वजह से मुल्क के विकास के लिए किया गया भूमि अधिग्रहण संकट से भरा रहा है। आजादी के बाद के शुरुआती कुछ दशकों में औद्योगिक विकास की नीति की वजह से परियोजनाओं के लिए काफी सारी जमीन का अधिग्रहण किया गया। चूंकि ये सारी परियोजनाएं सार्वजनिक क्षेत्र की थीं, इसलिए जिंदगी भर के लिए एक सुरक्षित नौकरी इलाके के लोगों के लिए एक काफी अच्छा मौका हुआ करती थी। जमीन की कीमत कोई मुद्दा हुआ ही नहीं करती थी क्योंकि वहां कोई प्रतिस्पर्द्धा थी ही नहीं।

लेकिन अब ये सारी बातें बीते जमाने की हो चुकी हैं। आज बड़ी औद्योगिक परियोजनाओं में प्राइवेट सेक्टर की भागीदारी पूरी की पूरी तस्वीर को बदल चुका है। आज हुनरमंद लोगों के लिए तो काम की गारंटी नहीं है, अकुशल लोगों के बारे में तो छोड़ ही दीजिए। प्राइवेट सेक्टर के आने से जमीन के मालिकों और दूसरे लोगों के बीच बंटवारा हो गया है। दरअसल, प्राइवेट सेक्टर की बड़ी परियोजनाओं से केवल जमीन के मालिकों को ही फायदा होने की उम्मीद है। बड़ी बात यह है कि जिन लोगों के पास जमीन के मालिकाना हक हैं, उनके लिए भी काफी सारी दिक्कते हैं। पहली बात तो यह है कि हमारे मुल्क में खेतों का मालिकाना हक निर्धारित करना काफी मुश्किल काम है। दूसरी बात यह है कि बाजार में जमीन की असल कीमत उसी इंसान को मिलती है, जो उसका मालिक होता है। कई मामलों में अगर उस जायदाद की असल कीमत चुकाई गई तो प्रोजेक्ट की लागत कई गुना बढ़ जाती है। ऐसे हालात में मदद करती हैं सरकारें। सरकारों के हस्तक्षेप की वजह से यह पूरी प्रक्रिया कहने के लिए पारदर्शी और अच्छी बन जाती है। असलियत में सरकारी हस्तक्षेप की वजह से जमीन की असल कीमत का अंदाजा नहीं लग पाता है। इस तरह से यह बाजार की कार्यकुशलता पर भी काफी असर डालता है। असल सवाल यहां यह है कि खेतों के असल मालिकों का पता नहीं लगा पाने के फायदों पर कहीं जमीन के असल मालिक को ही पैसे दिया जाना ही तो भारी नहीं पड़ रहा है?दूसरा आर्थिक मुद्दा, यहां अलग-अलग लोगों को मिलने वाला अलग-अलग फायदा है। खेतिहर मजदूरों की कमाई पर मंडराने वाला खतरा कहीं ज्यादा है। असल में, खेतों पर काम करने वाले ज्यादातर लोग खेतिहर मजदूर ही होते हैं। साथ ही, उन्हें कृषि से अलग कहीं और नौकरी मिलने की गुंजाइश भी काफी कम होती है। सरकारी खजाने से मिलने वाली सब्सिडी की वजह से सरकारी कंपनियां तो उन्हें काफी आराम से रख लेती हैं। लेकिन बड़े से बड़े दिलवाला उद्योगपति भी ऐसा नहीं कर सकता है। अगर सरकार उपजाऊ जमीन पर प्राइवेट कंपनियों को बुलाना चाहती है, तो उसे पहले इन लोगों की आजीविका पर मंडराते खतरे को दूर करना होगा।एक बहुदलीय लोकतंत्र की पहचान ही होती है, लंबे समय के लिए वादे। एक बड़े प्रोजेक्ट की समय-सीमा अक्सर एक या दो सरकारों का वक्त तो लेती ही है। इनका कोई फायदा ही नहीं रहेगा, अगर एक सरकार के इन्हें शुरू करने के बाद दूसरी सरकार इसे ठंडे बस्ते में डाल देती है। भारतीय अर्थव्यवस्था के आज के रास्ते को देखकर तो यही लगता है कि इसे और इसमें शामिल लोगों को कई बड़े बदलावों से होकर गुजरना पड़ेगा।वैसे, सिंगुर ने सरकारों को एक काफी सीधा सा पैगाम दिया है। इसका साफ कहना है कि राज्य के विकास पर केवल अपना एकाधिकार मत समझो। इसके लिए योजनाएं बनाने समय जितने ज्यादा लोगों को इसमें शामिल किया जाए, इसके कामयाब होने की उम्मीद उतनी ही ज्यादा होगी।