Thursday, October 16, 2008

एकता का ताना-बाना तोड़ती घटनाएँ

उड़ीसा में असहाय ईसाइयों पर जारी हिंसक ताण्डव को 50 से ज्यादा दिन हो चुके हैं लेकिन हमलों और हत्याओं का सिलसिला थमेगा इसके संकेत न के बराबर हैं। कंधमाल में ईसाइयों पर हमले होते रहे, सरकार बाद में हरकत में आई। कंधमाल के बाद बौध जिला हिंसा और लूटपाट का केंद्र बन गया। आगे क्या होने वाला है, लगता है किसी को नहीं पता। हालाँकि जो इलाके अभी अपेक्षाकृत शांत लग रहे हैं, पर वहाँ भी हालात सामान्य तो नहीं ही हैं, हिंसा में मारे गए लोगों के शव दफनाने का इंतजाम 45 दिन बाद हो सका। यह सुरक्षा के भारी इंतजामात के बाद ही संभव हो पाया। प्रत्यक्षदर्शियों का दावा है कि आगजनी

उड़ीसा त्रासदी में कई और भी दुखदायी पेंच हैं। लेकिन हैरत की बात है कि न तो उड़ीसा सरकार और न ही बजरंग दल यह मानेंगे कि हिंसा और नरसंहार का यह ताण्डव तब शुरू हुआ जब स्वामी सरस्वती की हत्या के बाद नक्सलियों ने इसकी तत्काल जिम्मेदारी ले ली

के दौरान जो लोग अपना घर छोड़कर जान बचाने के लिए जंगलों में जा छुपे थे, वे अब भी वहीं या किसी अन्य सुरिक्षत ठिकाने की तलाश में भटक रहे हैं। जान बचाने के लिए भागे-भागे फिर रहे ऐसे लोगों की संख्या 50 हजार के आसपास बताई जा रही है। उनकी हिम्मत नहीं हो पा रही कि वे अपने घरों को लौट सकें या फिर पुनर्र्वास के बारे में सोचें।

इसलिए कि उन्हें बजरंग दल के गुण्डों ने धमकी दी है कि अगर उन्होंने फिर से हिन्दू धर्म नहीं अपनाया तो मौत के घाट उतारा दिया जाएगा। दिल्ली के एक अखबार ने हिंसा के शिकार ऐसे ही परिवार की खबर भी छापी है जिससे पता चलता है कि कोई एक महीने तक प्रतिरोध करने के बाद अंततः उस ईसाई शरणार्थी को दबाव के आगे घुटने टेकने पड़े। इन भयावह हालात में राज्य के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक के इस बयान को कौन गंभीरता से लेगा कि हालात को काबू करने के लिए वे जो कुछ कर सकते थे उन्होंने किया।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अब तक की अपनी सबसे लंबी विदेश यात्रा के बाद जब स्वदेश लौटे तो उन्होंने कहा कि उड़ीसा (और देश के अन्य हिस्सों में भी) में ईसाई विरोधी दंगों की वजह से विश्वभर में भारत की नाक नीची हुई। जाहिर है, अगर प्रधानमंत्री ऐसी घोषणा करते हैं तो उसकी वाजिब वजहें हैं। फ्रांस के राष्ट्रपति सरकोजी ने मनमोहन सिंह से इस बारे में तल्ख बात की, अमेरिका ने थोड़े शालीन तरीके से अपनी प्रतिक्रिया जताई और इसके बाद दिल्ली यात्रा पर आई अमेरिका की विदेश मंत्री कोंडोलीजा राइस ने भी इस मसले पर अपनी चिंता का फिर से इजहार किया।इससे पहले इटली की सरकार ने भारत के राजदूत को तलब कर उड़ीसा की हिंसा पर अपनी चिंता और दुख व्यक्त किया। पोप भी इन घटनाओं से आहत हैं। लेकिन दुख की बात यह है कि देश के अंदर उड़ीसा की घटनाओं को लेकर वैसी शर्मिंदगी का अहसास नहीं है जैसा कि विश्व बिरादरी में है। खासकर उड़ीसा के मुख्यमंत्री और सत्ता में उनके सहयोगी इस मामले को लेकर शर्मसार नहीं दिखते। हास्यास्पद बात यह है कि नवीन पटनायक ने अपने जीवन का एक लंबा समय विदेश में बिताया है लेकिन एक दशक तक मुख्यमंत्री रहने के बावजूद वे उड़िया नहीं बोल पाते।
पटनायक के बहुत से आलोचक कहते हैं कि भाजपा शासित अन्य राज्य, कर्नाटक और मध्यप्रदेश में भी ईसाई अल्पसंख्यकों पर हिंसा हुई थी, लेकिन वहाँ इन घटनाओं पर तार्किक तरीके से और तेजी के साथ नियंत्रण पा लिया गया। कर्नाटक के नव-निर्वाचित मुख्यमंत्री ने बजरंग दल के नेताओं को गिरफ्तार करने में कोई हिचक नहीं दिखाई। जाहिर है ऐसे हालात में मौखिक जुगाली के बजाय आपका काम ज्यादा बोलता है।
उड़ीसा त्रासदी में कई और भी दुखदायी पेंच हैं। लेकिन हैरत की बात है कि न तो उड़ीसा सरकार और न ही बजरंग दल यह मानेंगे कि हिंसा और नरसंहार का यह ताण्डव तब शुरू हुआ जब स्वामी सरस्वती की हत्या के बाद नक्सलियों ने इसकी तत्काल जिम्मेदारी ले ली। उड़ीसा में इन अमानवीय अपराधों के जिम्मेदार लोग अलग-अलग तरह की बातें उड़ा रहे हैं। वे यह जताने की कोशिश कर रहे हैं कि यह टकराव धार्मिक नहीं है बल्कि दो आदिवासी गुटों की रंजिश की उपज है। इसके साथ ही वे यह बात भी फैला रहे हैं कि वीएचपी नेता की हत्या के बाद उपजा गुस्सा धर्मांतरण के कारण भड़का और बढ़ता चला गया।
इसमें संदेह नहीं है कि ईसाइयों पर हो रही हिंसा और भंग हो चुकी कानून व्यवस्था ने

अगर नेहरू के दौर से तुलना करें तो हम पाएँगे कि अपनी नीतियों और सत्ता द्वारा तुरंत कार्रवाई करने की इच्छाशक्ति के मामले में बड़ी तेजी से गिरावट आई है। इसी गिरावट की वजह से मामले इतने जटिल और बेकाबू हो गए हैं

राष्ट्रीय एकता और शांतिपूर्ण तरीके से विकास की चुनौती को कई गुना बढ़ा दिया है। एक तो इस वक्त आतंकवाद एक बड़ी चुनौती बना हुआ है उस पर देश के अंदर भड़की यह साम्प्रदायिक आग समाज के लिए एक बड़ा खतरा बन गई है। इससे राष्ट्रीय एकता का ताना-बाना बिखरने की आशंका है। मामला सिर्फ उड़ीसा का नहीं है असम में भी बोडो और बांग्लादेशियों (ज्यादातर मुसलमानों) के बीच टकराव है। अगर कंधमाल में 50 हजार ईसाई विस्थापित हैं तो असम के बोडो जिलों में अपनी जान की खातिर भटकने वालों की संख्या 90 हजार के आसपास है।

अगर नेहरू के दौर से तुलना करें तो हम पाएँगे कि अपनी नीतियों और सत्ता द्वारा तुरंत कार्रवाई करने की इच्छाशक्ति के मामले में बड़ी तेजी से गिरावट आई है। इसी गिरावट की वजह से मामले इतने जटिल और बेकाबू हो गए हैं। संकट के समय सत्ता का व्यवहार इसकी गवाही देता है। तुरंत कार्रवाई करने के बजाय नवीन पटनायक और यूपीए ने एक-दूसरे पर आरोप लगाने का खेल शुरू कर दिया। जब पटनायक ने और ज्यादा अर्धसैनिक बलों की माँग की तो दिल्ली से जवाब आया कि उड़ीसा में तो पहले से ही ज्यादा सैनिक तैनात हैं।प्रमुख विपक्षी पार्टी भाजपा की भूमिका कम हैरतंगेज नहीं है। जिस समय बजरंग दल के नेता ईसाइयों को सबक सिखाने की धमकी देकर गर्व महसूस कर रहे थे उसी समय भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने साफ कहा कि बजरंग दल का इस हिंसा से कोई लेना-देना नहीं है। बाद में आडवाणी ने मामले को थोड़ा ठंडा करने की कोशिश की। जब आडवाणी ने दिल्ली के आर्कबिशप से मिलकर उड़ीसा की घटनाओं के लिए माफी माँगी और नन के बलात्कार पर शर्मसार हुए तो बजरंग दल ने गुस्सा कर आडवाणी के पुतले फूँके। आखिर यह देश जा कहाँ रहा है? निश्चित रूप से महाशक्ति बनने की राह पर तो नहीं।

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