टाटा मोटर्स के सिंगुर को अलविदा कहने के साथ ही एक काफी उलझी हुई कहानी भी खत्म हो गई। यह कहानी उलझी हुई इसलिए है क्योंकि यह साफ नहीं है कि कौन जीता और कौन हारा? साथ ही, यह भी साफ नहीं है कि इसके फायदे क्या हुए? टाटा मोटर्स को एक तरह से नुकसान तो हुआ ही है। एक तो उसने सिंगुर में काफी पैसे लगा दिए थे। ऊपर से, उसकी पूरी की पूरी रणनीति भी नाकामयाब हो गई। लेकिन कौन जाने, नई जगह पर नैनो प्रोजेक्ट को शुरू करना कंपनी के लिए खुशियों का पैगाम लेकर आए। घाटा तो पश्चिम बंगाल को भी काफी हुआ है। वह खुद को एक ऐसी जगह के रूप में बनाने में लगा हुई थी, जो कारोबार के लिहाज से काफी अच्छा है। लेकिन इस घटना के बाद सूबे के युवाओं के सुनहरे सपनों को पूरा करने की पूरी कवायद ही मिट्टी में मिल गई है। लेकिन शायद यह घटना हमें यह बता सकती है कि यह पूरी रणनीति ही बहुत ही गलत तरीके से बनाई गई थी। इसमें शुरू से ही सबको साथ लेकर नहीं चला गया। ऐसी हालात में इस परियोजना को आज नहीं तो कल नाकामयाब होना ही था।कई लोग इसके बाद ममता बनर्जी को एक विलेन के रूप में देखेंगे और दिखाएंगे। फिर भी इस जिद्दी और पक्के इरादों वाली नेता में कोई बात तो है, जिससे उन्होंने एक इतनी बड़ी ताकत को भी पीछे हटने पर मजबूर कर दिया। अक्सर ऐसे छुपे रुस्तमों को अच्छा माना जाता है, कम से कम किताबों में तो माना ही जाता है। तो क्या अपने इस कारनामे की वजह से ममता को इतना फायदा मिल पाएगा, जिससे वह अगले चुनाव में बंगाल की सत्ता पर पिछले 35 सालों से काबिज कम्युनिस्टों को बाहर का रास्ता दिखा सकें? यह सब काफी रोचक और अहम सवाल हैं, लेकिन मैं अपना ध्यान सिंगुर से मिली सीख पर ही रखना चाहूंगा। मेरे मुताबिक सिंगुर ने उस बुनियादी बदलावों के बारे में काफी अहम संकेत दिए हैं, जिससे हमारी अर्थव्यवस्था आजकल गुजर रही है। यह कुछ ऐसे बुनियादी मुद्दे हैं, जिनसे निपटने के लिए अर्थशास्त्र और राजनीति शास्त्र की स्कूली किताबों में कई बातें कहीं गई हैं। हालांकि, किताबों में इनसे निपटना काफी आसान है, लेकिन असल जिंदगी में ये बातें सरकारों नानी याद करवा देती हैं। सिंगुर और दूसरी जगहें इस बात की अच्छी मिसाल हैं।इस परिस्थिति के केंद्र में दो आर्थिक मुद्दे हैं, जायदाद का मालिकाना हक और बाजार की कार्यकुशलता। यह कहना काफी हद तक सही होगा कि इन्हीं दोनों मुद्दों की वजह से मुल्क के विकास के लिए किया गया भूमि अधिग्रहण संकट से भरा रहा है। आजादी के बाद के शुरुआती कुछ दशकों में औद्योगिक विकास की नीति की वजह से परियोजनाओं के लिए काफी सारी जमीन का अधिग्रहण किया गया। चूंकि ये सारी परियोजनाएं सार्वजनिक क्षेत्र की थीं, इसलिए जिंदगी भर के लिए एक सुरक्षित नौकरी इलाके के लोगों के लिए एक काफी अच्छा मौका हुआ करती थी। जमीन की कीमत कोई मुद्दा हुआ ही नहीं करती थी क्योंकि वहां कोई प्रतिस्पर्द्धा थी ही नहीं।
लेकिन अब ये सारी बातें बीते जमाने की हो चुकी हैं। आज बड़ी औद्योगिक परियोजनाओं में प्राइवेट सेक्टर की भागीदारी पूरी की पूरी तस्वीर को बदल चुका है। आज हुनरमंद लोगों के लिए तो काम की गारंटी नहीं है, अकुशल लोगों के बारे में तो छोड़ ही दीजिए। प्राइवेट सेक्टर के आने से जमीन के मालिकों और दूसरे लोगों के बीच बंटवारा हो गया है। दरअसल, प्राइवेट सेक्टर की बड़ी परियोजनाओं से केवल जमीन के मालिकों को ही फायदा होने की उम्मीद है। बड़ी बात यह है कि जिन लोगों के पास जमीन के मालिकाना हक हैं, उनके लिए भी काफी सारी दिक्कते हैं। पहली बात तो यह है कि हमारे मुल्क में खेतों का मालिकाना हक निर्धारित करना काफी मुश्किल काम है। दूसरी बात यह है कि बाजार में जमीन की असल कीमत उसी इंसान को मिलती है, जो उसका मालिक होता है। कई मामलों में अगर उस जायदाद की असल कीमत चुकाई गई तो प्रोजेक्ट की लागत कई गुना बढ़ जाती है। ऐसे हालात में मदद करती हैं सरकारें। सरकारों के हस्तक्षेप की वजह से यह पूरी प्रक्रिया कहने के लिए पारदर्शी और अच्छी बन जाती है। असलियत में सरकारी हस्तक्षेप की वजह से जमीन की असल कीमत का अंदाजा नहीं लग पाता है। इस तरह से यह बाजार की कार्यकुशलता पर भी काफी असर डालता है। असल सवाल यहां यह है कि खेतों के असल मालिकों का पता नहीं लगा पाने के फायदों पर कहीं जमीन के असल मालिक को ही पैसे दिया जाना ही तो भारी नहीं पड़ रहा है?दूसरा आर्थिक मुद्दा, यहां अलग-अलग लोगों को मिलने वाला अलग-अलग फायदा है। खेतिहर मजदूरों की कमाई पर मंडराने वाला खतरा कहीं ज्यादा है। असल में, खेतों पर काम करने वाले ज्यादातर लोग खेतिहर मजदूर ही होते हैं। साथ ही, उन्हें कृषि से अलग कहीं और नौकरी मिलने की गुंजाइश भी काफी कम होती है। सरकारी खजाने से मिलने वाली सब्सिडी की वजह से सरकारी कंपनियां तो उन्हें काफी आराम से रख लेती हैं। लेकिन बड़े से बड़े दिलवाला उद्योगपति भी ऐसा नहीं कर सकता है। अगर सरकार उपजाऊ जमीन पर प्राइवेट कंपनियों को बुलाना चाहती है, तो उसे पहले इन लोगों की आजीविका पर मंडराते खतरे को दूर करना होगा।एक बहुदलीय लोकतंत्र की पहचान ही होती है, लंबे समय के लिए वादे। एक बड़े प्रोजेक्ट की समय-सीमा अक्सर एक या दो सरकारों का वक्त तो लेती ही है। इनका कोई फायदा ही नहीं रहेगा, अगर एक सरकार के इन्हें शुरू करने के बाद दूसरी सरकार इसे ठंडे बस्ते में डाल देती है। भारतीय अर्थव्यवस्था के आज के रास्ते को देखकर तो यही लगता है कि इसे और इसमें शामिल लोगों को कई बड़े बदलावों से होकर गुजरना पड़ेगा।वैसे, सिंगुर ने सरकारों को एक काफी सीधा सा पैगाम दिया है। इसका साफ कहना है कि राज्य के विकास पर केवल अपना एकाधिकार मत समझो। इसके लिए योजनाएं बनाने समय जितने ज्यादा लोगों को इसमें शामिल किया जाए, इसके कामयाब होने की उम्मीद उतनी ही ज्यादा होगी।
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