Tuesday, October 14, 2008

आर्थिक संकट में हनुमान चालीसा

वैश्विक वित्त के मक्का कहे जाने वाले वॉल स्ट्रीट में अमेरिकी वित्तीय संकट के भूकम्प से पैदा हुई सुनामी की लहरें योरपीय देशों को झकझोरती हुई मुंबई की दलाल स्ट्रीट तक पहुँच गई हैं। इस वित्तीय सुनामी से मुंबई शेयर बाजार झटके खा रहा है। संवेदी सूचकांक (सेंसेक्स) 2 वर्षों के सबसे निचले स्तर तक लुढ़क चुका है। विदेशी संस्थागत निवेशक (एफआईआई) भारतीय बाजारों से पैसा निकालकर भाग रहे हैं।इस साल जनवरी से अब तक लगभग 10 अरब डॉलर की विदेशी वित्तीय पूँजी देश

रुपया डॉलर के मुकाबले पिछले पाँच वर्षों के न्यूनतम स्तर पर पहुँच गया है। विदेशी पूँजी का पलायन इसी तरह जारी रहा तो शेयर बाजार के साथ-साथ रुपए की कीमत में और गिरावट की आशंका को नकारा नहीं जा सकता। इससे घरेलू निवेशकों का भी विश्वास हिल गया है

छोड़कर जा चुकी है। इसमें भी सिर्फ पिछले कुछ सप्ताहों में 1.5 अरब डॉलर का एफआईआई निवेश भारत से निकल चुका है। विदेशी पूँजी के इस तरह पलायन का असर सिर्फ शेयर बाजार पर ही नहीं पड़ा है बल्कि इसके कारण रुपए की कीमत भी तेजी से गिरी है।
रुपया डॉलर के मुकाबले पिछले पाँच वर्षों के न्यूनतम स्तर पर पहुँच गया है। विदेशी पूँजी का पलायन इसी तरह जारी रहा तो शेयर बाजार के साथ-साथ रुपए की कीमत में और गिरावट की आशंका को नकारा नहीं जा सकता। इससे घरेलू निवेशकों का भी विश्वास हिल गया है। बाजार में घबराहट, अनिश्चितता और अस्थिरता का माहौल है।वित्त मंत्री पी. चिदंबरम चाहे जितने दावे करें कि भारतीय अर्थव्यवस्था का बुनियादी आधार (फंडामेंटल्स) मजबूत है और अमेरिकी वित्तीय संकट का अर्थव्यवस्था पर कोई खास असर नहीं होगा लेकिन उसे सुनने के लिए कोई तैयार नहीं है। अब तो खुद प्रधानमंत्री ने स्वीकार कर लिया है कि अमेरिकी वित्तीय संकट से भारत भी अछूता नहीं रहेगा। यहाँ तक कि उन्होंने यूपीए सरकार की तात्कालिक प्राथमिकताओं की सूची में अमेरिकी वित्तीय संकट से भारतीय अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले कुप्रभावों से निपटने के मुद्दे को आतंकवाद से निपटने की तुलना में पहले स्थान पर रखा है।मनमोहन सिंह का आकलन बिल्कुल सही है। हालाँकि उन्होंने इस नतीजे पर पहुँचने में बहुत देर कर दी है और संकट दरवाजे पर दस्तक दे रहा है। मुद्रास्फीति की दर बेकाबू बनी हुई है। दो अंकों में पहुँच गई मुद्रास्फीति की दर नीचे आने का नाम नहीं ले रही। इसका सीधा असर ब्याज दरों पर पड़ा है और रिजर्व बैंक की सख्त मौद्रिक नीति के कारण छोटे-बड़े उद्यमियों और निवेशकों के लिए बैंकों और खुले बाजार से निवेश के वास्ते धन जुटाना मुश्किल हो गया है।यही नहीं, अमेरिकी वित्तीय संकट के कारण बड़े देशी कारपोरेट समूहों के लिए अंतरराष्ट्रीय बाजारों से नए निवेश और विस्तार के वास्ते पूँजी जुगाड़ने के ज्यादातर स्रोत सूख से गए हैं। इसका नए निवेश पर नकारात्मक असर तय है। निवेश में गिरावट अर्थव्यवस्था की विकास दर की रफ्तार पर ब्रेक लगा सकती है। अधिकांश आर्थिक विश्लेषकों और स्वतंत्र एजेंसियों के मुताबिक चालू वित्तीय वर्ष (2008-09) में जीडीपी की वृद्धि दर गिरकर 7 से 7.5 प्रतिशत के बीच रह सकती है।ध्यान रहे कि पिछले कुछ वर्षों से जीडीपी की वृद्धि दर औसतन 9 प्रतिशत से अधिक चल रही थी लेकिन अब प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद ने भी माना है कि चालू साल में जीडीपी की वृद्धि दर 7.5 प्रतिशत के आसपास रहेगी। लेकिन अमेरिकी वित्तीय संकट जिस तरह से गहराता और फैलता जा रहा है, उससे साफ है कि उसके संक्रामक प्रभाव से भारतीय अर्थव्यवस्था की सेहत और गड़बड़ा सकती है। आश्चर्य नहीं कि जीडीपी वृद्धि दर इस साल 7 प्रतिशत से भी नीचे लुढ़क जाए। इसकी ठोस वजहें हैं।

अर्थव्यवस्था को लेकर सबसे बड़ी चिंता यह पैदा हो रही है कि कहीं वह स्टैगफ्लेशन की गिरफ्त में तो नहीं आ रही ? स्टैगफ्लेशन की स्थिति तब पैदा होती है जब एक ओर अर्थव्यवस्था की विकास दर गिर रही हो और दूसरी ओर मुद्रास्फीति की दर बढ़ रही हो या ऊँचाई पर बनी हुई

चालू वित्तीय वर्ष के पहले चार महीनों (अप्रैल-जुलाई) में औद्योगिक उत्पादन के सूचकांक की वृद्धि दर गिरकर मात्र 5.7 प्रतिशत रह गई है जबकि पिछले वर्ष इसी अवधि में इसकी वृद्धि दर 9.7 प्रतिशत थी। हालाँकि इस साल इंद्र देव की कृपा से कृषि क्षेत्र का प्रदर्शन कुछ बेहतर रहने की उम्मीद है लेकिन उद्योग क्षेत्र के साथ-साथ सेवा क्षेत्र की वृद्धि दर में लड़खड़ाहट साफ दिख रही है। साफ है कि अमेरिका सहित दुनिया केअधिकांश विकसित देशों की अर्थव्यवस्थाओं के मंदी के चपेट में आने का असर भारतीय निर्यात पर भी पड़ने लगा है।

दूसरी ओर रुपए की कीमत में गिरावट से आयात महँगा हो गया है। इससे व्यापार घाटा तेजी से बढ़ा है। ताजा आँकड़ों के मुताबिक चालू साल के पहले पाँच महीनों में व्यापार घाटा 42 प्रतिशत बढ़कर 49 अरब डालर तक पहुँच गया। यही नहीं, इस साल की पहली तिमाही में चालू खाते का घाटा 10.72 अरब डालर तक पहुँच गया है जो जीडीपी का 3.6 प्रतिशत बैठता है। चालू खाते का बढ़ता घाटा अर्थव्यवस्था के प्रबंधकों के लिए एक नया सिरदर्द है और प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकारों ने भी इसे लेकर गहरी चिंता जताई है। अर्थव्यवस्था को लेकर सबसे बड़ी चिंता यह पैदा हो रही है कि कहीं वह स्टैगफ्लेशन की गिरफ्त में तो नहीं आ रही ? स्टैगफ्लेशन की स्थिति तब पैदा होती है जब एक ओर अर्थव्यवस्था की विकास दर गिर रही हो और दूसरी ओर मुद्रास्फीति की दर बढ़ रही हो या ऊँचाई पर बनी हुई हो। हालाँकि इस मुद्दे पर अर्थशास्त्रियों में मतभेद है लेकिन अर्थव्यवस्था उस जैसी स्थिति में ही फँसती दिख रही है। अगर किसी चमत्कार ने नहीं बचाया तो एक बार स्टैगफ्लेशन की गिरफ्त में फँसने के बाद अर्थव्यवस्था का उससे बाहर निकलना न सिर्फ बहुत मुश्किल हो जाता है बल्कि आम लोगों के लिए वह प्रक्रिया बहुत तकलीफदेह हो जाती है। साफ है कि आर्थिक संकट की सुरसा ने अपना आकार बढ़ाना शुरू कर दिया है। लेकिन लाख टके का सवाल है कि क्या मनमोहन सिंह इस सुरसा से निपटने के लिए हनुमान प्रयास करेंगे? अफसोस, हनुमान प्रयास तो नहीं यूपीए सरकार ऊँट की तरह रेत में सिर छिपाकर हनुमान चालीसा जरूर पढ़ती दिख रही है। लेकिन क्या इससे संकट टल जाएगा ? ankur vats

No comments: