Sunday, September 7, 2008

दुष्कर्मी-हत्यारे शिक्षक की फांसी पर मुहर

नई दिल्ली [ ब्यूरो]। यह महज एक संयोग है। शिक्षक दिवस पर शुक्रवार को लाखों शिक्षकों को उनके अनुकरणीय कार्यों के लिए सम्मानित किया गया। वहीं एक शिक्षक को उसके घृणित कुकर्माें के लिए फांसी की सजा सुनाई गई है। शुक्रवार को सुप्रीमकोर्ट ने नौ साल की बच्ची से दुष्कर्म के बाद हत्या करने वाले एक शिक्षक की फांसी की सजा पर अपनी मुहर लगा दी है। इसके पहले सत्र अदालत व हाईकोर्ट ने भी पुणे के शिवाजी उर्फ दादया शंकर को फांसी की सजा सुनाई थी।न्यायमूर्ति अरिजीत पसायत व न्यायमूर्ति एम के शर्मा की पीठ ने शिवाजी की याचिका खारिज कर दी। पीठ ने कहा कि सत्र अदालत व हाईकोर्ट का फैसला सही है। उसमें दखल देने का कोई आधार नहीं है। यह मामला विरले मामलों की श्रेणी में आता है। अभियुक्त को फांसी की ही सजा सुनाई जा सकती है।घटना जनवरी 2002 पुणे की है। मकर संक्रांति का दिन था। अभियुक्त नौ साल की बच्ची को जलाने की लकड़ी देने का लालच देकर पहाड़ी पर ले गया। वहां दुष्कर्म के बाद उसकी हत्या कर दी। अभियुक्त शिक्षक शादीशुदा और तीन बच्चों का पिता है। यह मामला परिस्थितिजन्य साक्ष्यों का था। अभियुक्त को अंतिम बार बच्ची के साथ देखा गया था। उसके बाद बच्ची मरी पायी गई।सुप्रीमकोर्ट ने सजा को सही ठहराते हुए कहा कि परिस्थितिजन्य साक्ष्यों के आधार पर भी फांसी की सजा सुनाई जा सकती है, यदि घटना की क्रमबद्धता सिद्ध हो जाए और गवाहों के बयान विश्वसनीय हों। इस मामले में ऐसा ही है।फैसले में कहा गया है कि सजा अपराध के अनुपात और उसके समाज पर पड़ने वाले प्रभाव को ध्यान में रख कर दी जानी चाहिए। सजा पर विचार करते समय अपराध के तरीके, कारण और उसमें प्रयुक्त हथियार तथा परिस्थितियों का ध्यान रखा जाना चाहिए। उदाहरण के तौर पर दोनों पक्षों की ओर से चलने वाली पुरानी आपसी दुश्मनी के मामले में मृत्युदंड नहीं दिया जा सकता है। लेकिन संगठित, सुनियोजित अपराध तथा बड़े पैमाने पर निर्दोषों की हत्या के मामले में ऐसे अपराधों को रोकने के लिए मृत्यु दंड दिया जा सकता है। पीठ ने कहा कि अभियुक्त के साथ बेमतलब की सहानुभूति रख कर अपर्याप्त सजा दिया जाना न्यायिक प्रणाली के लिए ज्यादा घातक है। इससे लोगों का कानून की निपुणता पर विश्वास कम होगा और समाज ज्यादा समय तक इसे नहीं सह सकता। इसलिए प्रत्येक अदालत का कर्तव्य है कि वह सजा देते समय अपराध की प्रकृति और तरीके को ध्यान में रखे। अपराध का समाज पर पड़ने वाले असर को ध्यान में रखे बगैर सजा देना बहुत से मामलों में बेकार की प्रक्रिया सिद्ध होता है।महिलाओं, बच्चों के प्रति अपराध, डकैती तथा नैतिकता आदि के खिलाफ होने वाले अपराधों में जनहित को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता। ऐसे मामलों में उदाहरणात्मक दंड दिया जाना चाहिए।

1 comment:

Shastri JC Philip said...

"महिलाओं, बच्चों के प्रति अपराध, डकैती तथा नैतिकता आदि के खिलाफ होने वाले अपराधों में जनहित को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता। ऐसे मामलों में उदाहरणात्मक दंड दिया जाना चाहिए।"

आपके कथन का अनुमोदन करता हूँ




-- शास्त्री जे सी फिलिप

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